अकेलापन जब मन को घेर लेता है तो कविता कैसे रिसती है, ज़रा गौर करिए मेरा अंदाजे बयां-
बेकल मन और एकल मन
कल-कल करता है किल्लोलें।
बेकल मन और एकल मन
कल-कल करता है किल्लोलें।
अपने प्यारे भइया की,
सुंदर कलाई पर !!॥
पेश है सावन की अगन मे जलता हुआ एक बिरह गीत.
पिछले दिनों की एक बात आप से बिना कही रह गई थी, आज ये एहसास के मोती धागे मे पिरो लेते हैं, सुंदर कंठइका ( kanthika) बन पड़ेगी।
कंचन दी, का मन था की मैं "गुनाहों का देवता" पढूं , मुझे उपन्यास बहुत ज़्यादा नही भाते फिर भी दी ने अगर कुछ बोला है तो वो प्रासंगिक तो होगा, हमने उनसे ही कहा आप पढ़वा दो, बस फ़िर क्या था, हुई इस बात की जोड़-तोड़ की लखनऊ से उपन्यास हम तक कैसे पहुंचे, पर उनकी जिज्ञासा ही अनुपम होती है, हमारे एक सहकर्मी का लखनऊ जाना इसी बीच बन पड़ा, इसके पीछे भी कहानी बहुत रोचक है की कैसे हमारे और दी के बीच का यह अंतराल कृष्ण उद्धव और गोपियों के प्रसंग की तरह रोचक रहा, जब तक की यह पुस्तक दी (कृष्ण ) से उद्धव ( राजेंद्र राठोड) के द्वारा गोपी (मैं) तक नही पहुँच गई॥
दी ने जो लिखा मेरे लिए इस पुस्तक पर ,वो मैं अलग से ही किसी दिन एक पूरी post के तहत आप से आप से कहूँगा।
इस उपन्यास के बारे मे शायद ही कोई न जानता हो, क्यूंकि इस की उपस्थिति हिन्दी साहित्य जगत मैं अग्रणी रही है, और लेखक के विषय मे भी यही बात लागू होती है। बुद्धि
साधारण बुद्धि वाला मैं, इतनी उत्कृष्ट कृति को जब पढने बैठा तो इस हद तक रूचि जागी की एक दिन office से हाफ डे लेकर आ गया । या यूँ कहें, कि चंदर और सुधा , दोपहर की छुट्टी तक पहुँच गए अपनी मोटर से और बोले भइया चलो, ये कहानी आगे पढ़ दो हमे बेहद तकलीफ हो रही है, पुस्तक के अन्दर॥
सुधा की विदा करा के तो हम office ही गए थे, पर हमे नही पता था कि जो हाफ डे हम ले रहे हैं वो सुधा के महा प्रयाण के लिए है॥ मन तीन दिन तक बेहद भारी रहा, जैसे तैसे हम इस उपन्यास के अन्य किरदारों , बिनती और पम्मी के सहारे बाहर निकले जो "जिंदगी और भी है" की तर्ज़ पर हमे अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी मे छोड़ कर पुस्तक मे छुप गए। पर आज कल रात को नींद टूट जाती है, और गेशु कहती है, समर्पण मे सम्यक खुशी है, ...
बुआ आकर कहती है, में भी इसी समाज का सच हूँ, और डॉ शुक्ल जैसा चरित्र भी आ कर पिता कि तरह विशाल हृदयता से सहला के चला जाता है, सुधा बिनती की मांग मे भरी-२ मुस्कुरा देती है, चंदर उसकी बात का कितना मान रखता है। आज कल जब चाय पीता हूँ तो सुधा kई चंदर को दी हुई चाय का ध्यान आ जाता है।
इन सब बातो के मन मे परिभ्रमण और पुस्तक के अंतर संकलन से मेरे मन मे कुछ कवितायेँ बनी, शायद चंदर,सुधा, पम्मी और गेशु मुझसे इस बात कि शिकायत नहीं करेंगे कि मैंने उनको पढने में कहीं भूल की। में कृतग्य हूँ उस महान लेखक के प्रति जिसने इतनी सशक्त कहानी लिखी कि उस कहानी का एक चरित्र हो जाने का दिल करता है।
में कोटिशः नमन करता हूँ कंचन दी को, जिन्होंने मुझे संवेदनाओं के सागर मे डुबकी लगाने का अनुपम सानिध्य संयोग जुटा कर दिया ।
१)
विवश था !
वक्त से।
था तो, मजबूत वो,
पर वक्त,
उसके हिस्से का,
मजबूती से,
कमज़ोर था॥
२)
रात, कारी सलों मे,
पसरी हुई है।
वो ढूढती है,
दिया सलाई॥
ताकि कर सके,
छेद , तम् की इस,
चादर मे॥
दिखने लगे दूर तलक,
तम् के कुआरे पन मे,
चरित्र हीनता का दोष॥
३)
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो॥
माना तुम हो, बुद्धि जीवी,
पर तुम, शलभ तो नहीं॥
होते जो तुम तो,
कहते न प्रेम की ,
अनुभूति को लिप्सा,
की गंदगी॥
वरन होते, खुद रात,
रोते- लिपट-लिपट।
खोते तुम प्राणों को,
ज्योति में सिमट-२॥
अँधेरे मे घुट कर जीने से,
लगता ये अंदाज़ भला,
उजारे के आलिंगन मे,
मौत का रूप उजला-२।
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो !!!!!!
दोस्तों !
चार दिन हो गए , शहर अभी भी कर्फ्यू से आजाद नही हुआ, घंटे दो-घंटे की छूट जैसे ही मिलती है सड़के भर जाती हैं, पेट्रोल पम्प लुप्त हो जाते हैं। सब्जियों का दाम गुणात्मक बढ़ जाता है, दूध डेरी पर लम्बी पंक्तियाँ और इस बात का डर की कहीं दूध खत्म न हो जाए ,बेचैन कर देता है॥
मेरा शहर इस बेचैनी के साथ जी रहा है॥
इस कविता में एक अपील है अमन के लिए, शान्ति के लिए और अपने शहर को वापस अपने रुतबे मे देखने के लिए।
पथराइए नही,
पिघलने का प्रयास करिए॥
पिघलने लगें,
तो रुकिए नहीं,
बहने का प्रयास करिए॥
बहने लगें जैसे ही,
तो पहुँचने का प्रयास करिए॥
जब पहुंचे ,
तो इतराइए नही,
समष्टि मे मौन ,
खो जाने का प्रयास करिए॥
जब खोने लगें,
तो ख़ुद को,
भूल जाने का प्रयास करिए ॥
तो फिर चलिए,
अपनी यात्रा शुरू करिए,
थोड़ा तो पिघलिये॥
थोड़ा तो पिघलिये॥
मेरे मरने के बाद,
मित्रो ! कल मेरे जाने के बाद के लिए लिखी गई मेरी यह क्षणिका , आज की व्यवस्थाओं को अपने इर्द-गिर्द देख कर लिखी गई है, मन कहता है, जीवन के उस पार भी कहीं यही लेन - देन तो नही होगा !!?
धांधली
यमदूत लेखा लेंगे,
यमराज धमकी देंगे॥
वहां भी देखना होगा,
क्या कुछ ! ले-देकर
बात बनानी होगी॥
कृमशः
किसी की पगडी रस्म होगी,
किसी की जायदाद,
कोई सच्चे आलापों मे,
कोई झूठे आंसुओं मे,
कोई उदाहरणों में,
मुझे खोजता रहेगा॥
वसीयत के कागजों पर,
दस्तखत का कालम,
खाली तो नही!!
असली जद्दोजहद,
तुम्हारे लिए ,
यही एक होगी॥
( कृमशः )
प्रिय जनों !
मरना तो शाश्वत सत्य है, पर हमारी कुछ अवधारणाएं, कर्म पुंज बन कर हमारे साथ चलती हैं।
मेरे मरने के बाद विषय के अंतर्गत जो मैं लिख रहा हूँ वो कितना पसंद किया जाएगा, मेरे लिए महत्वपूर्ण तो है, किंतु इस बात से अधिक श्रेयष्कर नहीं की यह विषय पाठकों द्वारा कितना समझा जाएगा॥
लीजिये, लुत्फ़ उठाइए मेरे एक और विचार का,
"यथाक्रम-यथावत"
सूरज सो कर उठेगा,
लालिमा आँखों मे लिए,
लाल-लाल॥
चन्द्रमा भी,
शीतला का,
लिए तिलक भाल,
अपना क्रम रख,
कदम ताल॥
तारे मगर अनंत हैं,
उन अन्तानंत मे,
एक और तारा होगा॥
आदमी की दुनिया मे,
रिक्ति, थोडी हो,
या बहुत,
आसमान के भाल पर,
नया एक तारा होगा॥
कृमशः)
मेरे मरने के बाद॥
दोस्तों, प्यार का एहसास मानव के जीवन पथ मे एक नई जीवन गाथा लिखता है, पर ये भी एक मोह पाश ही है,
एसी ही मेरी काल्पनिक प्रेयसी जो नही है अब, थी क्या ?? ये मत पूछिये, प्रासंगिक नही है॥
मेरे मोह की गाथा सुनिए, लीजिए पेश है पांचवा पायदान ,
" मेरा मोह- तुम"
तुम न हो कर,
मेरी जिंदगी को,
करती हो वीरान,
मरघट॥
और यादों मे,
आ- आ कर,
करती हो,
कपाल क्रिया॥
तुम आज,
दूसरो की दुनिया ,
हो कर मुझे,
जलाती हो॥
और मेरी ही,
मजबूरियों की
अश्रु गंगा मे,
मुझे बहाती हो॥
सब कुछ ,
कर दिया, करती हो,
क्या ? अलग होगा,
मेरे
मरने के बाद॥
(कृमशः )
मेरे मरने के बाद,
क्रम को और आगे बढाते हुए लीजिए पेश है मेरी इस श्रृंख्ला कि एक और रचना,
"अन्तिम यात्रा "
जाने कांधे किसके होंगे,
मेरी मिटटी कि अर्थी में,
जाने कौन जलाएगा,
मेरा झूठापन ,
आग लगा कर अर्थी में,
कौन कपाल क्रिया करेगा,
कौन लगायेगा फेरे॥
मैं तो बीत चुकूंगा तभ तक ,
फिर साथ रहा क्या, इस जग का मेरे॥
व्यवसाय यही था जीवन जब था,
संबंधों मे भेद पाटना ,
कहना कुछ को बहुत पराया,
कुछ को जतलाना ये मेरे॥
आँख मूंदने पर सब आए,
जो थे बहुत पराये कल तक,
या जिनको कहता था अपने- मेरे॥
भेद दृष्टि का ,
लेकर जाना नही भलाई मेरे साथी,
तुम मुक्तिपथ मे मुझे छोड़ कर,
क्षमा ह्रदय से करते जाना ,
निर्विकल्प मे विदा ले सकूं,
जीवन का न हो फिर दोहराना॥
(कृमशः)
और भी बहुत कुछ मेरे सोचे अनुरूप लिखूंगा अगला पायदान है "दाह संस्कार" ।
मेरे मरने के बाद,
प्रिय जनों ! श्रृंख्ला को आगे बढाते हुए आपके लिए एक नव कविता प्रेषित कर रहा हूँ, मेरी इस श्रृंख्ला के सच शायद आपने भी अपने चारों ओर देखे हों , दाबे के साथ नही कहूँगा , क्यूंकि मृत्यु से जुड़ी हुई घटनाओं को कौन कितने करीब से देखता ,ये कहा नही जा सकता ॥
चलिए मैं कोशिश करता हूँ ,आपसे कुछ कहने का,
उन्मान है ,
"मानवता "
पड़ोसी,
तंग हाल ,
कंजूस,
कैसा भी हो !
पर उसे,
हमारे सारे ,
रिश्ते दारों को ,
उसके ख़ुद के ,
फ़ोन से
ख़बर लगाना
कितना !
कष्टप्रद होगा ??!!
(कृमशः)
अगला पायदान है - अन्तिम यात्रा, जुरूर आइये मेरे ब्लॉग पर॥
दोस्तो ! अक्सर अपनी मृत्यु के बारे मे बात करने को अपशकुन कहा जाता है, पर मैं मानता हूँ ये जीवन उसी महोत्सव कि एक तैयारी है फिर इस पर सोचने, बात करने मे अपशकुन कैसा, ये तो हकीकत को समझने का एक प्रयास है... मैं अब आपसे कुछ ऐसी ही कवितायें कहूँगा जो मृत्यु के बाद के सच से जुड़ी है, हाँ ! मेरी मृत्यु और उससे जुड़े सच, कुछ कड़वे -कुछ मीठे सच,
आप सभी इसमे अपने लिए भी कुछ सच तलाश सकते हैं... वरना ये मेरा सच तो है ही ! साथ ही एक कयाश भी है कि क्या-२ हो सकता है -
"मेरे मरने के बाद
इस श्रंखला की पहली रचना,
(होगी नई शुरुआत आगे की )
सुई मे धागा पिरोने के बाद,
इंजन मे तेल पहुँचने के बाद,
बर्तन के तप चुकने के बाद,
क्या होता है ?
होगा वैसा ही कुछ,
मेरे बाद॥
क्यूंकि मैं पहुँच जाने का नाम नही हूँ,
क्यूंकि मैं रुक जाने का नाम नही हूँ ..
गतिवत हो जाना, गति पा लेना,
क्रम बदल जाए पर,
नियति पर हो ध्यान॥
ये ही है मेरा आगाज़,
मेरा अंदाज़,
सोचो क्या होगा ??
मेरा ! तेरा ! सबका !
कब ??
मेरे मर जाने के बाद ॥
होगा नव आगाज़॥
(कृमशः)
आशा के दीप जलाए थे,
मेरे जीवन मे आकर,
आशा के रंग सजाये थे ..
मैं तो रह लेता था ,
अंधरे कमरे मे घुट कर,
तुम ही हाथ पकड़ कर एक दिन,
मुझको बाहर लाये थे॥
तुमने ही तो आ कर मुझ तक,
आशा के दीप जलाये थे॥
मैंने तो रोका था तुमको,
अपने घर के बाहर ही,
पर आकर अन्दर तुमने ही,
सुंदर गीत सजाये थे॥
तुमने ही तो आ कर मुझ तक ,
आशा के दीप जलाए थे॥
मैं तो रो लेता था,
अपने घुटनों पर सर रख के,
पहली बार यहाँ आकर,तुमने ही!
अश्को पर प्रतिबन्ध लगाये थे,
तुमने ही तो आ कर मुझ तक,
आशा के दीप जलाये थे॥
मैंने कर लिए, बारह दर्जे पास ॥
अव्वल आकर,
पर आज, मेरी पहचान
मेधावी छात्रा न हो कर,
हो गई है,
युवा देहलीज पर,
दस्तक देती,
भारत माँ की ,
भारतीय बेटी॥
कर्तव्यनिष्ठ पिता की ,
जिम्मेदारियां भी जैसे,
उभर आई हैं यकायक॥
रिश्तेदार आ-आकर
माँ-बावा से करने लगे हैं,
कन्फुसियाँ॥
और माँ- बावा भी,
रोज़ रात मेरे सोने के बाद ,
गिनते हैं रुपये,
कनस्तर मे जमा-
रकम॥
माँ कहती है रोज़,
जैसे भी हो इस बरस तो,
करने ही होंगे ,
बेटी के हाथ पीले॥
मैं करवट बदल
तकिये मे छिपाती हूँ मुह ,
और अपनी प्रतिभाओं को ,
बहाने कि कोशिश ,
आंसुओं के जरिये ॥
और ख़ुद को मौन रह कर
समझाने कि कोशिश,
मध्यम वर्गीय परिवार मे
बेटी होना ऐसा ही एक क्रम है॥
जिसे आज से तकरीबन
अठारह बरस पहले ,
मेरी माँ ने निभाया व आज मुझे ,
निभाना होगा !!
मौन रह कर ॥
क्यूंकि ये संस्कार
माँ के दूध ,
और पिता के खून,
के जरिये मेरे मुख पर
पड़ गए हैं।
बंद ताले की तरह॥!!
१) योग्यता के आभाव में,,
मैं कैसे दूँ उन्हें !
आमंत्रण।
कहते हैं,
शेरनी का दूध रखने को,
सोने का पात्र चाहिए॥
मेरी लकड़ी कि कठोती ,
पात्रता के आभाव मे ,
मौन हो गई है,
आहिस्ता से॥
२) मैं समझा नही
उसे, या
वो समझे नही
मुझे॥
नहीं पता,
पता है तो सिर्फ़ यह,
कि कहीं न कहीं
समझ का फर्क है॥
३) दिल.
कुछ एक ऐसा हैं,
जिसे टूटने पर
रखा नही जाता ॥
कुछ एक ऐसा है
जिसे टूटने पर
फेंका नही जाता॥
कितना फर्क है,
जिस्म के भीतर ,
और जिस्म के बाहर ,
दुनिया में॥
मेरी माँ, दूर हो कर भी देती है साहस,
सदा चलते रहने की सीख॥
सदा खुश रहने कि प्रेरणा,
और बिखेरती है यादों मे प्रीति॥
मेरी माँ अक्सर मेरी आंखों मे आती है,
और आंसू बन बह जाती है॥
मेरी माँ इस तरह से,
मुझको अक्सर नम कर जाती है॥
मेरी माँ आती है सुबह-२ ,
भावनाओं के जरिये पिलाती है चाय॥
मेरी माँ मेरा खाना पकाने मे हाथ batati है,
मुझे बगल मे baithatee aur परोसकर खिलाती है॥
मेरी माँ कितनी अच्छी है,
जो दूर हो कर भी बिलकुल करीब रहती ॥
aaj से सात साल पहले जब पढ़ने घर से निकला tabhi का एक unmaan है ये कविता..
माँ ने कहा है ,खोजना सच॥
खूब पढ़ना और, बनना सफल आदमी॥
समय पर रोटी खाना,
भूखे मत सोना,
घर कि चिंता मत करना॥
मैंने मौन हो कर सुना,
मुस्कराया और चला आया॥
कैसे कहूँ माँ से-
मुश्किल बहुत है खोजना सच ,
पढ़ना और बनना आदमी॥
समय पर तो माँ खिलाती है रोटी,
यहाँ तो भूखा सोना अनिवार्य है॥
रही घर कि चिंता , तो क्यों न हो !?
क्या इस घर के अलावा, कहीं कुछ है,
जो मेरा है॥
यही सच है, माँ तेरी दुआ मेरा साथ देगी॥
तकदीर बदलेगी,
देखना तेरा बेटा सफल आदमी बनेगा,
जब तक तेरा सिर गौरव से न उठे,
चैन की साँस नही लेगा॥
मैं फिर लिखना चाहता हूँ,
सुन्दर कविता !!
फिर लिखने से पहले,
रुक जाता हूँ ये सोचकर-
क्या तुम फिर वापस आओगी ??
पहनोगी मेरे शब्दों के लिबास,
सुहाग की लाल साड़ी उतारकर ..
क्या sajaogi अपनी मांग मे-
मेरा शब्द सिन्दूर,
सुहाग की लाल रोली निकाल कर ॥
मेरा मन है लिखूं सुन्दर कविता,
तो क्या ! ? तुम फिर वापस आओगी ॥
kya पहनोगी मेरी धडकनों के-
jhanakte नुपुर,
अपनी सुहाग कि पायलें उतार कर॥
मेरी शब्द बाहें पड़ते ही utaarni होगी-
स्वर्ण मेखला,
सुहाग का मंगल सूत्र ॥
क्या तुम वापस आओगी !!?
पूछता है मन,क्यूंकि
में फिर लिखना चाहता हूँ,
एक सुन्दर कविता ..
मैं सोचता हूँ-
इतना,कि
सोचकर थक जाता हूँ॥
मैं सोचता क्यों हूँ !? इतना,
मैं ये भी सोचता हूँ॥
पता नही तुम्हे,कि
अगर न सोचता मैं तो,
मैं सोचता बस इतना ,कि
मैं ज़्यादा सोचता नहीं हूँ॥
मैं बीमार तो नहीं हूँ !?
तुम सोचते होगे॥
मगर सोच होती अगर बीमारी,
तो तुम क्यों सोचते मेरे लिए !! ऐसा
मुझे यकीन है,
मेरा दोस्त बीमार नही हैं॥
मैं सोचता हूँ बस इतना,
कि मैं सोचता बहुत हूँ !!
मेरी यह कविता मेरे बचपन से जुड़ी है, साथ ही इस के अन्दर हमारी परम्पराओं और संस्कृति की खुशबु भी महकती है,मध्य भारत मे एक परम्परा है अक्षय तृतीय पर विवाह संपन्न करने की , और यह परम्परा बच्चों द्वारा प्रतीकात्मक रूप मे खेली जाती है, हम भी बचपन के उन दिनों मे पीपल के पेड़ के नीचे जाकर (हरदौल बावा के पास ) अपने माटी के गुड्डे -गुडिया का ब्याह रचाते थे, और अपने संगी-साथियों के साथ रोटी पन्ना खेलते थे ,इस खेल मे रोटियां झूठ की होती थी, पकवान भी काल्पनिक होते थे पर भावनाएं बहुत ही पवित्र और अंतरंग से निकली हुई होती थी ॥ लीजिए आप भी इस अनूठी चुहल भरी कविता का लुत्फ़ लीजिए-
आओ लाडो !
खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।
तुम ले आओ अपनी बन्नी ,
मैं ले आया अपना बन्ना ॥
सरकारी दफ्तर जाता है,
रुपये हज़ार कमाता है।
तेरी बन्नी को क्या आता है,
क्या अच्छा खाना बन पाता है ?
मेरा गुड्डा अच्छे खाने का है शौकीन,
रोज़ चाहिए मीठा, रोज़ खाए नमकीन।
खूब सोच लो ठाठ रहेगी,
मेरे घर मे आराम करेगी॥
मगर रुपैया लाख लगेगा,
घर गृहस्थी का साज लगेगा,
होती हो राजी तो आना ,
हम लाल चुनरिया डाल ही देंगे।
तेरी बन्नी को अपना मान ही लेंगे॥
आओ लाडो !
खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।
तुम ले आओ अपनी बन्नी,
मैं ले आया अपना बन्ना॥
रति के नयन हीरक जड़े,
मन स्वर्ण है, अभिलाष का॥
देखो बसंत की करनी को,
उच्चावचन यह स्वांस का॥
मदन की देखो दशा अब,
नयनो भरी है raktimaa..
बसंत धडके धडकनों me ,
मुश्किल हुआ सम्हालना॥
किस देवता की करें पूजा,
क्या अर्घ्य दूँ,उस पाद me॥
जो देवता,उजियार दे एक दीप,
मन के इस निर्वात men ..
हे ! देवता,यह ऋतू मादक,
कहतi प्रणय के पाठ नित॥
पर priy बैठे अजनबी बन,
मन पता puchhe कर Vinat..