Tuesday, November 11, 2008

बेकल मन और एकल मन

मित्रो!!!

अकेलापन जब मन को घेर लेता है तो कविता कैसे रिसती है, ज़रा गौर करिए मेरा अंदाजे बयां-



बेकल मन और एकल मन
कल-कल करता है किल्लोलें।
फ़िर होकर शांत दुबक जाता,
और ऑंखें भरती हैं डब्कोले॥
कह कर दुःख, चुप रह कर दुःख,
सुख की चाहत में क्या बोले।
सांझ लौट कर घर पहुंचे तो,
लगता है, दीवारें मुंह बोले॥
कोई पास नही, कोई आस नहीं,
कोई तो जीवन मे रस घोले।
मैं भाग रहा था,जाने कब से,
दुर्गम मंजिल तक बिन बोले॥

हर बार रूप वो धरती एसा,
मन रह जाता खा हिचकोले।
मन निराश, ज्यूँ मृत पड़ी आश,
कल-कल करता है किल्लोलें॥
बाधा क्या है, क्या पीर कहूँ,
विदित नियति से क्या बोलें।
हाथ खोल, रेखाएं तकते ,
क्या लिखा रखा है, कुछ बोलें॥

बेकल मन और एकल मन
कल-कल करता है किल्लोलें।




Thursday, October 30, 2008

मैं कर रहा हूँ कोशिश, लिखने की नए तराने॥

मित्रो ! नमस्कार।
हमेशा की तरह, एक लम्बे अंतराल के उपरांत आपसे फिर मुखातिब आपका दोस्त !
एम्.बी.ए के इम्तिहान कि वजह से यह फासला रहा, वर्ना इस दौरे बयार से कौन मुह फेरना चाहेगा॥
क्या खूब कहा है किसी ने हर किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता.....
एक कविता मन मे हिचकोले खाती रही, क्यूंकि आदत जो हो गई है इस महफिल की,

कोशिश कर रहा हूँ, लिखने की नए तराने।
मन हो गया है नदिया, शायद इसी बहाने॥

फूटा है कोई झरना, दिल की किसी सतह से।
जिंदगी मे खुशियाँ, कोई लगा सजाने॥

चम्पई फूल आकर, खुशियों मे हुए शामिल।
मैना आ गई है, अंगना मे गीत गाने॥
कोशिश कर रहा हूँ......

चन्दा है, चांदनी है, रागों मे रागिनी है।
धरती लगी है हंसने , अम्बर लगा हँसाने॥

शुरुआत का हो स्वागत, सबकी है यही ख्वाहिश।
गणपति भी आज खुश हैं, आगाज़ के बहाने॥

माँ शारदा भी आई, तूलिका को लेकर।
मैं कर रहा हूँ कोशिश, लिखने की नए तराने॥
धरती लगी है हंसने, अम्बर लगा हँसाने॥






Monday, August 25, 2008

रेशम की एक डोर से संसार बांधा है ,

एक अंतराल के बाद लिखने पर मन थोड़ा सोचता है, कि क्या लोग उसी सहृदयता से मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे या, उन्हें पूछना होगा की क्या वो मुझे पढ़ने के लिए तैयार हैं ॥


जो भी हो दोस्तों ! मैं तो मुखातिब हूँ अब आपसे एक ऐसे उन्मान के साथ जो बह जाना ही चाहता है॥ आपको शायद यह भी लगे कि लिखी जा रही कविता मैंने किसी विशेष के लिए लिखी है, और अगर मैंने लिखी है किसी की व्यक्तिवादिता तो उसे निजी क्यूँ नही रखा, लेकिन मुझे लगता है कुछ लोग होते हैं हमारे समाज मे जो ख़ुद ही व्यक्तिवादी न हो कर सामजिक चेतना के दीप बन जाते हैं, ऐसे ही एक दिये ( कंचन दी) की कहानी को कविता के माध्यम से सुना रहा हूँ, रचना देखने में लम्बी लग सकती है, पर वादा करिए आप इसे पूरा पढेंगे, मुझे पूरा यकीन है आप को पूरा पढ़ने के बाद इस बात का मलाल नही रहेगा कि इतनी लम्बी रचना को न पढ़ना बेहतर था !!


शुरू करते हैं ....





रेशम की एक डोर से संसार बांधा है ,





वो अक्सर क्या ?


हर कभी कहती हैं !


वो सहज मानवी है,


देवी नही है॥


में मान लेता कभी ,


पर मानने नही देता,


मन।


देता है उलाहना,उल्टे!


मुझे डांटता बहुत है,


ऐसा करने पर॥


डांटती तो वो भी है,


ऐसा न करने पर,


में हो जाता हूँ तटस्थ,


और खोजता हूँ,


नई शब्दावली,


नई परिभाषा,


रिश्तों की !!


संसार मे रह कर


संसार मे रहने वाले,


पर संसार से विचित्र,


व्यवहार दर्ज करने वाले,


शख्स को ,यदि


एक शब्द मे कहना हो


तो क्या कहें.....!!


क्यूंकि यह तो तय है,


कि नही है वो,


सहज मानवी,


मगर मानने से


इंकार कर दिया है उसने,


ख़ुद को देवी ॥


वो भेजती है,


मुझे नेह का सूत्र,


लिफाफे में, मैं निहारता


रहा हूँ ,


उस बंधन मे छुपी,


अतिशय सुन्दरता॥


कहने को बहिन कह दूँ


इस धागे की ताक ले कर,


पर उस करुणा का


क्या नाम हुआ,फिर


जो उसके मन से बहती है


मेरे लिए,


और सहानुभूति रखने वाले


सहचर सी कर लेती है


नम आँखे रह-२ कर॥


संत, साध्वी ,सेवी,


क्या-2 shaब्द है दुनिया के,


बन चुके शब्द कोष मे,


मैं बिठाता हूँ इस


शख्स कि योग्यता

mका मेल हर

खांचे मे,


पर पाता हूँ


परिभाषाओं से भिन्न


कुछ ऐसा


जो समाता नही है इन


परिभाषित शब्दों मे,


मैं हतप्रभ सा,


सोचता रहता हूँ,


क्यूँ शब्दातीत को,


कभी-२ शब्दों मे


बाँधने का होता है मन,


जैसे अतुल नेह


जिसका कोई,


सीमांकन नही है,


बहिन बाँध देती है


रेशम की डोर मे पिरो कर,

अपने प्यारे भइया की,


सुंदर कलाई पर !!॥




Monday, August 4, 2008

मेरी प्रिय पत्नी के लिए !!

लीजिए क्रम की अगली प्रस्तुति,
मेरी प्रिय पत्नी के लिए !!
कई दिनों तक,
तुम्हारे हाथों,
खाना ज़्यादा पक जाएगा,
एक आदमी का॥
रसोई मे सम्हल कर
काम करना,
बच्चे नाराज़ होंगे !!
खोई-खोई मत रहना,
खुशियों मे शामिल हो जाना,
बात-बात मे,
मेरा ज़िक्र मत करना,
बच्चे नाराज़ होंगे !!
जीवन से बोझिल मत होना,
ढोना ! मत रोना ,
तुम्हारे आंसू बहते रहेंगे,
तो बच्चे नाराज़ होंगे !!
ज़्यादा दखल मत करना,
जैसे मुझे करती थी,
बात-बात मे,
बच्चे नाराज़ होंगे॥
(कृमशः )

Monday, July 28, 2008

सावन की अगन



पेश है सावन की अगन मे जलता हुआ एक बिरह गीत.




जाने कौन प्रीति की मारी,

गाती होगी सावन गीत,

एक बिरह की गाथा में ही,

जाएगा यह सावन बीत॥


रे ! पछुआ के पवन चुभीले,

जा तो उसकी ओर,

बदरी भर ले , शीतल नीर,

छींटे डालो उसके ठौर ..


कहना एक बिरह का मारा,

रोया इतना रात,

ख़ुद से ही कह पाया पर,

वो अपने दिल की बात।


पर घुमड़े से मेघ देख कर,

मन में आई बात,

क्यूँ न, भेजे एक बदरी भर,

आंसू तेरे पास॥


तू अब गा-गा कर भीगेगी,

मेरे अश्रु गीत,

या आने का जतन करेगी !

मेरी अनजानी मीत।


माना तुमसे मिले नहीं,

पर हम को है अनुमान,

सावन तेरे नयन हो गए,

तू है राह देख हैरान॥


चित्त नही लगता दुनिया में,

मन रहता एकांत,

कौन नीड़ का भटका पंछी

ढूंढ़ रहा है ठान॥

Saturday, July 26, 2008

सावन झरा,झर पड़ी मधु बतियाँ।

इस बार इंदौर में बारिश ने थोड़ा देर से दस्तक दी, और जन मानस बेचैन हो गया कि पता नही इस बार क्या होगा ??!!



मगर सावन अब झरना चालू हो गया है, और मेरा मन भी !! तो लीजिये लुत्फ़ लीजिये मेरी नवीन कविता का ,

सावन झरा,
झर पड़ी मधु बतियाँ।
कोंपल-कोंपल सिहरी,
सिहरी, सारी रतियाँ॥
प्रिय जिनके हैं संग,
उनके अगन प्रेम की उजरी,
जो हैं बिरहन उनके भी,
अगन बिरह कि बिखरी,
पियु-पियु के कोलाहल से,
बादल-बादल सिहरे॥
कौतुक मन मे यूँ उमडे,
कि सारा सावन सिहरे॥
सावन झरा,
झर पड़ी मधु बतियाँ।
कोंपल-कोंपल सिहरी,
सिहरी, सारी रतियाँ॥

Wednesday, July 16, 2008

"गुनाहों का देवता" पढ़ने के बाद मेरी मनोदशा..


पिछले दिनों की एक बात आप से बिना कही रह गई थी, आज ये एहसास के मोती धागे मे पिरो लेते हैं, सुंदर कंठइका ( kanthika) बन पड़ेगी।

कंचन दी, का मन था की मैं "गुनाहों का देवता" पढूं , मुझे उपन्यास बहुत ज़्यादा नही भाते फिर भी दी ने अगर कुछ बोला है तो वो प्रासंगिक तो होगा, हमने उनसे ही कहा आप पढ़वा दो, बस फ़िर क्या था, हुई इस बात की जोड़-तोड़ की लखनऊ से उपन्यास हम तक कैसे पहुंचे, पर उनकी जिज्ञासा ही अनुपम होती है, हमारे एक सहकर्मी का लखनऊ जाना इसी बीच बन पड़ा, इसके पीछे भी कहानी बहुत रोचक है की कैसे हमारे और दी के बीच का यह अंतराल कृष्ण उद्धव और गोपियों के प्रसंग की तरह रोचक रहा, जब तक की यह पुस्तक दी (कृष्ण ) से उद्धव ( राजेंद्र राठोड) के द्वारा गोपी (मैं) तक नही पहुँच गई॥
दी ने जो लिखा मेरे लिए इस पुस्तक पर ,वो मैं अलग से ही किसी दिन एक पूरी post के तहत आप से आप से कहूँगा।


इस उपन्यास के बारे मे शायद ही कोई न जानता हो, क्यूंकि इस की उपस्थिति हिन्दी साहित्य जगत मैं अग्रणी रही है, और लेखक के विषय मे भी यही बात लागू होती है। बुद्धि

साधारण बुद्धि वाला मैं, इतनी उत्कृष्ट कृति को जब पढने बैठा तो इस हद तक रूचि जागी की एक दिन office से हाफ डे लेकर आ गया । या यूँ कहें, कि चंदर और सुधा , दोपहर की छुट्टी तक पहुँच गए अपनी मोटर से और बोले भइया चलो, ये कहानी आगे पढ़ दो हमे बेहद तकलीफ हो रही है, पुस्तक के अन्दर॥

सुधा की विदा करा के तो हम office ही गए थे, पर हमे नही पता था कि जो हाफ डे हम ले रहे हैं वो सुधा के महा प्रयाण के लिए है॥ मन तीन दिन तक बेहद भारी रहा, जैसे तैसे हम इस उपन्यास के अन्य किरदारों , बिनती और पम्मी के सहारे बाहर निकले जो "जिंदगी और भी है" की तर्ज़ पर हमे अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी मे छोड़ कर पुस्तक मे छुप गए। पर आज कल रात को नींद टूट जाती है, और गेशु कहती है, समर्पण मे सम्यक खुशी है, ...

बुआ आकर कहती है, में भी इसी समाज का सच हूँ, और डॉ शुक्ल जैसा चरित्र भी आ कर पिता कि तरह विशाल हृदयता से सहला के चला जाता है, सुधा बिनती की मांग मे भरी-२ मुस्कुरा देती है, चंदर उसकी बात का कितना मान रखता है। आज कल जब चाय पीता हूँ तो सुधा kई चंदर को दी हुई चाय का ध्यान आ जाता है।

इन सब बातो के मन मे परिभ्रमण और पुस्तक के अंतर संकलन से मेरे मन मे कुछ कवितायेँ बनी, शायद चंदर,सुधा, पम्मी और गेशु मुझसे इस बात कि शिकायत नहीं करेंगे कि मैंने उनको पढने में कहीं भूल की। में कृतग्य हूँ उस महान लेखक के प्रति जिसने इतनी सशक्त कहानी लिखी कि उस कहानी का एक चरित्र हो जाने का दिल करता है।

में कोटिशः नमन करता हूँ कंचन दी को, जिन्होंने मुझे संवेदनाओं के सागर मे डुबकी लगाने का अनुपम सानिध्य संयोग जुटा कर दिया ।

१)

विवश था !

वक्त से।

था तो, मजबूत वो,

पर वक्त,

उसके हिस्से का,

मजबूती से,

कमज़ोर था॥

२)

रात, कारी सलों मे,

पसरी हुई है।

वो ढूढती है,

दिया सलाई॥

ताकि कर सके,

छेद , तम् की इस,

चादर मे॥

दिखने लगे दूर तलक,

तम् के कुआरे पन मे,

चरित्र हीनता का दोष॥

३)

शलभ की विपदा को,

लिप्सा तो न कहो॥

माना तुम हो, बुद्धि जीवी,

पर तुम, शलभ तो नहीं॥

होते जो तुम तो,

कहते न प्रेम की ,

अनुभूति को लिप्सा,

की गंदगी॥

वरन होते, खुद रात,

रोते- लिपट-लिपट।

खोते तुम प्राणों को,

ज्योति में सिमट-२॥

अँधेरे मे घुट कर जीने से,

लगता ये अंदाज़ भला,

उजारे के आलिंगन मे,

मौत का रूप उजला-२।

शलभ की विपदा को,

लिप्सा तो न कहो !!!!!!

Sunday, July 6, 2008

थोड़ा तो पिघलिये

दोस्तों !

चार दिन हो गए , शहर अभी भी कर्फ्यू से आजाद नही हुआ, घंटे दो-घंटे की छूट जैसे ही मिलती है सड़के भर जाती हैं, पेट्रोल पम्प लुप्त हो जाते हैं। सब्जियों का दाम गुणात्मक बढ़ जाता है, दूध डेरी पर लम्बी पंक्तियाँ और इस बात का डर की कहीं दूध खत्म न हो जाए ,बेचैन कर देता है॥


मेरा शहर इस बेचैनी के साथ जी रहा है॥


इस कविता में एक अपील है अमन के लिए, शान्ति के लिए और अपने शहर को वापस अपने रुतबे मे देखने के लिए।


पथराइए नही,

पिघलने का प्रयास करिए॥


पिघलने लगें,


तो रुकिए नहीं,


बहने का प्रयास करिए॥


बहने लगें जैसे ही,


तो पहुँचने का प्रयास करिए॥


जब पहुंचे ,


तो इतराइए नही,


समष्टि मे मौन ,


खो जाने का प्रयास करिए॥


जब खोने लगें,


तो ख़ुद को,


भूल जाने का प्रयास करिए ॥


तो फिर चलिए,


अपनी यात्रा शुरू करिए,


थोड़ा तो पिघलिये॥


थोड़ा तो पिघलिये॥


Saturday, July 5, 2008

जिद!!!!

दोस्तों !
पिछले दो दिनों से इंदौर शहर के असामान्य हालात सारे देश के लिए चिंता जन्य हैं, मोहल्ला मे संजय जी की पोस्ट पढ़ी तो मन हैरत से भर गया, कितने सजीव रिश्तों कि महक उन्होंने उस पोस्ट मे एक रचना के जरिये प्रकाशित करी है। सुबह कंचन दी से बात हुई , उन्होंने पूछा राकेश क्या हो गया तुम्हारे शहर को ??? मैंने कहा दी...झगडे हो रहे हैं... वो बोली कितनी सहजता से कह रहे हो ??? मैंने कहा बड़ा असहाय लगता है मन को, क्या कर सकता हूँ मैं ???, इस समय सिर्फ़ ज़्यादा करुणा आने पर एक कविता बह जायेगी, पर क्या इस समय मेरे शहर को कविता की ज़ुरूरत है॥?? क्या लोग इतनी असामान्य घटनाओं के बीच मेरी समझाइश को पढ़ने ब्लॉग खोलेंगे , पता नही, पर उनके फ़ोन के बाद मेल चेक किया तो संजय जी का संदेश पाया ऊपर लिखी ब्लॉग पोस्ट के बारे मे, मैंने उन्हें पढ़ा , और एक उन्मान मेरे मन से भी बह निकला॥

जिद !!!

वेदना से भरा मन,
देखा रंगा लहू से जो बदन॥
वो चीखता ही रह गया ,
जो था मरा॥
मैं !अपराध बोध किस बात का ??
अब कर रहा॥

हद से गुजर कर पीर
तब होती भली,
मैं थाम पाता आगे होकर,
बिखरती कली॥

मैं अधिकार से कह सकता उसे,
तू मत झगड़,
वो एक अदब के वास्ते,
खामोशियाँ लेता जकड॥

अब क्या कहें?
किसको कहें?
बस करते रहें कनफुसियाँ॥
लड़ते रहें,
मरते रहें,
करते रहें गुस्ताखियाँ॥

हम क्यूँ सहज हों?
क्यूँ हों कोमल?
हम तो मरेंगे आज-दिन,
झगडा करेंगे रात-दिन ॥

उतरे हैं बुद्धि बेच के,
झगडे हैं दाव-पेंच के॥
मुझको फरक क्या? कौन था वो??
जो मरा॥
मैंने लिए है सर पर अपने,
इंसानियत को,
मारने का फैसला॥


Friday, July 4, 2008

मेरे मरने के बाद,-१० ( धांधली )

मेरे मरने के बाद,

मित्रो ! कल मेरे जाने के बाद के लिए लिखी गई मेरी यह क्षणिका , आज की व्यवस्थाओं को अपने इर्द-गिर्द देख कर लिखी गई है, मन कहता है, जीवन के उस पार भी कहीं यही लेन - देन तो नही होगा !!?

धांधली

यमदूत लेखा लेंगे,

यमराज धमकी देंगे॥

वहां भी देखना होगा,

क्या कुछ ! ले-देकर

बात बनानी होगी॥

कृमशः

Wednesday, July 2, 2008

मेरे मरने के बाद,

प्रिय पाठको !!
लीजिये एक और अनुभूति आपसे बांटता हूँ,

कल का चलन ??



आधुनिकता के उस दौर में,


शायद तुम मुंडन भी न कराओ॥


तीसरे दिन,


तुम व्यवसायी होने पर,


दुकान खोलने की जल्दी मे रहोगे॥


और नौकरी पेशा होने पर,


हाफ टाइम करने की कोशिश मे॥


जैसा भी हो,


देख लेना !


सुविधा से,


अस्थि विसर्जन॥


(कृमशः)


Monday, June 30, 2008

मेरे मरने के बाद-८ (" समाज और रस्म")

मेरे मरने के बाद,
लीजिये मेरे विचारों की गंगोत्री का और एक अंजुली जल,
" समाज और रस्म"

किसी की पगडी रस्म होगी,


किसी की जायदाद,


कोई सच्चे आलापों मे,


कोई झूठे आंसुओं मे,


कोई उदाहरणों में,


मुझे खोजता रहेगा॥


वसीयत के कागजों पर,


दस्तखत का कालम,


खाली तो नही!!


असली जद्दोजहद,


तुम्हारे लिए ,


यही एक होगी॥


( कृमशः )


Friday, June 27, 2008

मेरे मरने के बाद-७ ("यथाक्रम-यथावत")

प्रिय जनों !

मरना तो शाश्वत सत्य है, पर हमारी कुछ अवधारणाएं, कर्म पुंज बन कर हमारे साथ चलती हैं।

मेरे मरने के बाद विषय के अंतर्गत जो मैं लिख रहा हूँ वो कितना पसंद किया जाएगा, मेरे लिए महत्वपूर्ण तो है, किंतु इस बात से अधिक श्रेयष्कर नहीं की यह विषय पाठकों द्वारा कितना समझा जाएगा॥

लीजिये, लुत्फ़ उठाइए मेरे एक और विचार का,

"यथाक्रम-यथावत"

सूरज सो कर उठेगा,

लालिमा आँखों मे लिए,

लाल-लाल॥

चन्द्रमा भी,

शीतला का,

लिए तिलक भाल,

अपना क्रम रख,

कदम ताल॥

तारे मगर अनंत हैं,

उन अन्तानंत मे,

एक और तारा होगा॥

आदमी की दुनिया मे,

रिक्ति, थोडी हो,

या बहुत,

आसमान के भाल पर,

नया एक तारा होगा॥

कृमशः)

Wednesday, June 25, 2008

मेरे मरने के बाद -६ (दुनियादारी॥)

मैं एक दिन लेट हो गया इस क्रम ताल मे, क्षमा चाहूँगा ,
लीजिये पेश है अगली कविता ,

दुनियादारी
तुम चार दिन रो कर ,
चुप बैठ जाओगी॥
अगर में आज ही मरा,
तो तुम पहाड़ सी उम्र देख,
दूसरा विवाह रच लोगी॥
में अगर एक नन्हा सा ,
आसरा दे कर मरा, तो
तुम उसमे मुझे देख,
जिंदगी के तार-२ बदन को,
फिर से जोड़ने का प्रयास करोगी॥
में अगर ४० के पार मरा, तो
मेरे ऑफिस से मिले रुपयों की,
जोड़-तोड़ कर,
अपने आंसू सुखा लोगी॥
और अगर बूढा मरा, तो
अपने नाती-पोतों से,
दिल बहला लोगी॥
(कृमशः)

Saturday, June 21, 2008

मेरे मरने के बाद -५ (" मेरा मोह- तुम")

मेरे मरने के बाद॥

दोस्तों, प्यार का एहसास मानव के जीवन पथ मे एक नई जीवन गाथा लिखता है, पर ये भी एक मोह पाश ही है,

एसी ही मेरी काल्पनिक प्रेयसी जो नही है अब, थी क्या ?? ये मत पूछिये, प्रासंगिक नही है॥

मेरे मोह की गाथा सुनिए, लीजिए पेश है पांचवा पायदान ,

" मेरा मोह- तुम"

तुम न हो कर,

मेरी जिंदगी को,

करती हो वीरान,

मरघट॥

और यादों मे,

आ- आ कर,

करती हो,

कपाल क्रिया॥

तुम आज,

दूसरो की दुनिया ,

हो कर मुझे,

जलाती हो॥

और मेरी ही,

मजबूरियों की

अश्रु गंगा मे,

मुझे बहाती हो॥

सब कुछ ,

कर दिया, करती हो,

क्या ? अलग होगा,

मेरे

मरने के बाद॥

(कृमशः )

Thursday, June 19, 2008

मेरे मरने के बाद,-४ ("दाह संस्कार")




लीजिए पेश है एक और कविता,


"दाह संस्कार"


मिटटी, मिटटी हो जायेगी,


चेतन पंछी होते ही॥


आग लगेगी उस कोठी मे,


जिस मे चेतन रहता था॥


अचेतन के इसे होंगे हालात,


घर मे रखने से इंकार॥


खो जाएगा, और फ़ना हो जाएगा,


निज जन, निज मन का प्यार॥


(कृमशः)




Tuesday, June 17, 2008

मेरे मरने के बाद, -३ ("अन्तिम यात्रा ")

मेरे मरने के बाद,

क्रम को और आगे बढाते हुए लीजिए पेश है मेरी इस श्रृंख्ला कि एक और रचना,

"अन्तिम यात्रा "

जाने कांधे किसके होंगे,

मेरी मिटटी कि अर्थी में,

जाने कौन जलाएगा,

मेरा झूठापन ,

आग लगा कर अर्थी में,

कौन कपाल क्रिया करेगा,

कौन लगायेगा फेरे॥

मैं तो बीत चुकूंगा तभ तक ,

फिर साथ रहा क्या, इस जग का मेरे॥

व्यवसाय यही था जीवन जब था,

संबंधों मे भेद पाटना ,

कहना कुछ को बहुत पराया,

कुछ को जतलाना ये मेरे॥

आँख मूंदने पर सब आए,

जो थे बहुत पराये कल तक,

या जिनको कहता था अपने- मेरे॥

भेद दृष्टि का ,

लेकर जाना नही भलाई मेरे साथी,

तुम मुक्तिपथ मे मुझे छोड़ कर,

क्षमा ह्रदय से करते जाना ,

निर्विकल्प मे विदा ले सकूं,

जीवन का न हो फिर दोहराना॥

(कृमशः)

और भी बहुत कुछ मेरे सोचे अनुरूप लिखूंगा अगला पायदान है "दाह संस्कार" ।

Sunday, June 15, 2008

मेरे मरने के बाद,-२ ("मानवता ")

मेरे मरने के बाद,

प्रिय जनों ! श्रृंख्ला को आगे बढाते हुए आपके लिए एक नव कविता प्रेषित कर रहा हूँ, मेरी इस श्रृंख्ला के सच शायद आपने भी अपने चारों ओर देखे हों , दाबे के साथ नही कहूँगा , क्यूंकि मृत्यु से जुड़ी हुई घटनाओं को कौन कितने करीब से देखता ,ये कहा नही जा सकता ॥

चलिए मैं कोशिश करता हूँ ,आपसे कुछ कहने का,

उन्मान है ,

"मानवता "

पड़ोसी,

तंग हाल ,

कंजूस,

कैसा भी हो !

पर उसे,

हमारे सारे ,

रिश्ते दारों को ,

उसके ख़ुद के ,

फ़ोन से

ख़बर लगाना

कितना !

कष्टप्रद होगा ??!!

(कृमशः)

अगला पायदान है - अन्तिम यात्रा, जुरूर आइये मेरे ब्लॉग पर॥

मेरे मरने के बाद,-९ (कल का चलन ??)

मेरे मरने के बाद,

प्रिय पाठको !!

लीजिये एक और अनुभूति आपसे बांटता हूँ,

कल का चलन ??

आधुनिकता के उस दौर में,
शायद तुम मुंडन भी न कराओ॥
तीसरे दिन,
तुम व्यवसायी होने पर,
दुकान खोलने की जल्दी मे रहोगे॥
और नौकरी पेशा होने पर,
हाफ टाइम करने की कोशिश मे॥
जैसा भी हो,
देख लेना !
सुविधा से,
अस्थि विसर्जन॥

(कृमशः)

Thursday, June 12, 2008

"मेरे मरने के बाद "


दोस्तो ! अक्सर अपनी मृत्यु के बारे मे बात करने को अपशकुन कहा जाता है, पर मैं मानता हूँ ये जीवन उसी महोत्सव कि एक तैयारी है फिर इस पर सोचने, बात करने मे अपशकुन कैसा, ये तो हकीकत को समझने का एक प्रयास है... मैं अब आपसे कुछ ऐसी ही कवितायें कहूँगा जो मृत्यु के बाद के सच से जुड़ी है, हाँ ! मेरी मृत्यु और उससे जुड़े सच, कुछ कड़वे -कुछ मीठे सच,


आप सभी इसमे अपने लिए भी कुछ सच तलाश सकते हैं... वरना ये मेरा सच तो है ही ! साथ ही एक कयाश भी है कि क्या-२ हो सकता है -


"मेरे मरने के बाद

इस श्रंखला की पहली रचना,

(होगी नई शुरुआत आगे की )


सुई मे धागा पिरोने के बाद,


इंजन मे तेल पहुँचने के बाद,


बर्तन के तप चुकने के बाद,


क्या होता है ?


होगा वैसा ही कुछ,


मेरे बाद॥


क्यूंकि मैं पहुँच जाने का नाम नही हूँ,


क्यूंकि मैं रुक जाने का नाम नही हूँ ..


गतिवत हो जाना, गति पा लेना,


क्रम बदल जाए पर,


नियति पर हो ध्यान॥


ये ही है मेरा आगाज़,


मेरा अंदाज़,


सोचो क्या होगा ??


मेरा ! तेरा ! सबका !


कब ??


मेरे मर जाने के बाद ॥


होगा नव आगाज़॥


(कृमशः)





Sunday, June 8, 2008

आशा के दीप


तुमने ही तो आकर मुझ तक,

आशा के दीप जलाए थे,

मेरे जीवन मे आकर,

आशा के रंग सजाये थे ..

मैं तो रह लेता था ,

अंधरे कमरे मे घुट कर,

तुम ही हाथ पकड़ कर एक दिन,

मुझको बाहर लाये थे॥

तुमने ही तो आ कर मुझ तक,

आशा के दीप जलाये थे॥

मैंने तो रोका था तुमको,

अपने घर के बाहर ही,

पर आकर अन्दर तुमने ही,

सुंदर गीत सजाये थे॥

तुमने ही तो आ कर मुझ तक ,

आशा के दीप जलाए थे॥


मैं तो रो लेता था,

अपने घुटनों पर सर रख के,

पहली बार यहाँ आकर,तुमने ही!

अश्को पर प्रतिबन्ध लगाये थे,

तुमने ही तो आ कर मुझ तक,

आशा के दीप जलाये थे॥









Sunday, June 1, 2008

मेरा जन्म दिन -29th may (diary के पन्नों से)

इसे मेरी diary का एक अंश समझिए, यूं तो मैं अक्सर आप सभी को अपनी कविता ही सुनाता हूँ, पर कुछ मौके ऐसे आ जाते हैं जो बिना लाग लपेट के अपनों से बाँट लेने का मन करता है॥ आप मैं से सिर्फ़ कंचन दी हैं जो इस प्रविष्टि के लिखे जाने से पहले से जानती हैं कि २९ may को मेरा जन्म दिन आता है॥इस बार भी आया॥ मेरी ज़िंदगी के उपन्यास के २८ अंक पूरे पढ़ लिए गए॥ कुछ मे ३६५ पृष्ट रहे और किसी-२ अंक मे ३६६ भी थे ,उस अंक मे ज़िंदगी ने कुछ ज़्यादा कहने की कोशिश की होगी शायद॥
उन्तीस्वे अंक कि भूमिका मैं आपको सुना रहा हूँ॥ फ़ोन काल्स का सिलसिला २८ -२९ कि दर्म्यानी रात से ही शुरू हो गया जिसमे मेरी पूज्य कंचन दी का कॉल भी था। आपमें से कितने लोग उनसे जुड़े हैं नही पता पर उनके आशीर्वाद और दुआओं मे अलग ही एहसास है। वो जिन भावनाओं से कुछ कहती हैं,,वो तो बस महसूस ही किया जा सकता है॥
उनका अतुल स्नेह मेरी ज़िंदगी के 2८वे अंक के पन्नों मे लिखा जाना शुरू हुआ, और अब अन्तिम कड़ी तक यूं ही बना रहेगा.आप ये न समझिए कि यह कोई उपन्यासकार लिख रहा है॥ मैं तो इस उपन्यास का एक पात्र हूँ जो उपन्यासकार को मेज़ पर न देख अपने मन की कुछ कहने को पन्नों से बाहर निकल आया। मुझे यह भी नही पता कि कोई सुन भी रहा है या नही, क्यूंकि मैं कोई सदा हुआ कथाकार नही जो लिखता ही यूं है कि सब पढ़ने को लालायित रहते हैं॥
२९ कि सुबह को माँ को फ़ोन लगाता ,इससे पहले उनका फ़ोन आ गया, और इससे पहले मैं उनसे प्रणाम कहता उन्होंने खुश रहो कह दिया ॥इतनी तत्परता माँ के ह्रदय मे होती है बच्चों को दुआ देने की जिसकी कोई कल्पना नही है॥वो तो मुझे अप्रत्यक्ष हो कर भी सहलाती रहती है॥ वो बहुत अनुमति है, वो जब मेरे पास आती है इस बड़े शहर मे तो मुझसे पूछती है, इतने बड़े शहर मे तुम्हे कहाँ जाना है तुम भूलते नही हो? ???मैं हंस कर रह जाता हूँ, माँ को क्या कहूँ॥ कुछ भी नही होता इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास॥

सुबह पहले मंदिर फिर Office पहुँचा सभी साथियों ने पुरी ऊर्जा के साथ दुआ दी। मगर एक दुआ ऐसी थी कि मुझे रोमांचित कर गई॥मेरे office मे बहुत सारे Helpers होते हैं , उनमे से एक रमेश भी है। रमेश ने जैसे ही सुना कि आज मेरा जन्म दिन है, वो आस पास पड़े बेकार कागजों से एक सुंदर फूल तरास कर मेरे पास बड़ा कम्प्ता हुआ आया, sir मेरी तरफ़ से ये तोहफा ले लीजिए॥उसकी ऑंखें भरी हुई थी, और मेरे रोम-२ मे सिहरन हो गई। मैंने उसे बांहों मे भर लिया॥इस जन्मदिन का सबसे खूबसूरत यही तोहफा था॥

अब शाम कि बात करते हैं जब office से लौटा तो कविता दरवाजे पर ही मिल गई, और फिर कहने लगी सबके लिए कुछ न कुछ पहले तो मैंने उसे रोका यह कह कर -
कि मुद्दतों से लिखी नही,मैंने कोई शायरी ॥
तुम आती नही हो कभी,बन कर कलम, स्याही या diary॥
लेकिन वो न रुकी और कहती गई --बस कहती गई॥
पहली कविता बनी सभी चाहने वालों के लिए-
दुआओं के इतने सिलसिले,
इतनी क्रम बद्धता,
इतना स्नेह,
इतना स्मरण,
मेरे पास है, अनंत शक्ति!
यह सकारात्मक लोग हैं, चारों तरफ़,
तो लगता है,बहुत कुछ है ज़िंदगी मे मेरी॥
कविता ने हाथ पकड़ा और मुझे छोड़ आई उनके गलियारे-हमने कहा-
तुम क्यों चहक- २ कर ,
उछल- कूद मे लगी हो ,सुबह से ही॥
क्यों कह रही हो ,सबसे
कुछ अच्छा खाने का मन हो रहा है आज॥
कहती हो !क्यों न घर मे ही बनाया जाए Cake।
लोग प्रश्नाचिह्नित हो कर झांक रहे हैं,
तुम्हारी आँखों मे,और देख रहे
हैं आज एक अजनबी रोमांच,
जो उनकी दुनिया के सलीके से हट कर है॥
मगर तुम मना रही हो,
मेरी-तुम्हारी खुशियाँ ,अपने ही सलीके से।
उस अपने सलीके से हटकर रहने वाले लोगों के बीच॥

और जब उसको खुश देखता हूँ कल्पनाओं मे भी तो फिर मैं क्या हो जाता हूँ ये भी सुनिए न!!
खुशबू दिख रही है,
चित्र महसूस हो रहे हैं,
एहसास पढे जाने लगे हैं॥
साँसे शब्द उगलने लगी है,
लग रहा है जो कभी नही लगा ॥
हो रहा है जो कभी नही हुआ,
इसके आगे लिखूं तो कलम कहने लगी,
हो गया वह जो होना चाहता है,
हो गई वो बात जो कहनी थी,
अब विश्रांति लेलो॥
अब विश्रांति लेलो ॥
बस इतना लिखा ही था कि अजय, मेरा बहुत करीबी मित्र आ गया , तभी मेरे सभी पड़ोसी भी जमा हो गए और हम सब बहुत देर तक कविताओं के दौर मे बैठे रहे, और फिर मेरी भांजी शानू, बहिन चंचल और अनुज सौरभ भी आ गए ॥ मीनू मेरी बहिन जो इंदौर मे ही Job मे है office कि तम-झाम नही निबटा पाई और नही पहुँच पाई ... हम लोग एक restaurant मे dinner लेकर एक दुसरे से विदा हो गए..मैं सोने से पहले सोचता रहा ..मैं कितना सौभाग्यावंत हूँ जो मेरे चारों तरफ़ इतनी सकारात्मक ऊर्जा का प्रबाह है॥ आँख कब लाग गई ,,ये तो उपन्यासकार ही बताएगा, दरवाज़ा खुलने कि आवाज़ हो रही है॥ मैं वापस २९ वे अंक के प्रष्ठ क्रमांक 03 मे वापस जा रहा हूँ....

Sunday, May 25, 2008

भारत माँ की, भारतीय बेटी॥

मैंने कर लिए, बारह दर्जे पास ॥
अव्वल आकर,
पर आज, मेरी पहचान
मेधावी छात्रा न हो कर,
हो गई है,
युवा देहलीज पर,
दस्तक देती,
भारत माँ की ,
भारतीय बेटी॥
कर्तव्यनिष्ठ पिता की ,
जिम्मेदारियां भी जैसे,
उभर आई हैं यकायक॥
रिश्तेदार आ-आकर
माँ-बावा से करने लगे हैं,
कन्फुसियाँ॥
और माँ- बावा भी,
रोज़ रात मेरे सोने के बाद ,
गिनते हैं रुपये,
कनस्तर मे जमा-
रकम॥
माँ कहती है रोज़,
जैसे भी हो इस बरस तो,
करने ही होंगे ,
बेटी के हाथ पीले॥
मैं करवट बदल
तकिये मे छिपाती हूँ मुह ,
और अपनी प्रतिभाओं को ,
बहाने कि कोशिश ,
आंसुओं के जरिये ॥
और ख़ुद को मौन रह कर
समझाने कि कोशिश,
मध्यम वर्गीय परिवार मे
बेटी होना ऐसा ही एक क्रम है॥
जिसे आज से तकरीबन
अठारह बरस पहले ,
मेरी माँ ने निभाया व आज मुझे ,
निभाना होगा !!
मौन रह कर ॥
क्यूंकि ये संस्कार

माँ के दूध ,
और पिता के खून,
के जरिये मेरे मुख पर
पड़ गए हैं।
बंद ताले की तरह॥!!

Friday, May 16, 2008

क्षणिकाएँ

१) योग्यता के आभाव में,,

मैं कैसे दूँ उन्हें !

आमंत्रण।

कहते हैं,

शेरनी का दूध रखने को,

सोने का पात्र चाहिए॥

मेरी लकड़ी कि कठोती ,

पात्रता के आभाव मे ,

मौन हो गई है,

आहिस्ता से॥

२) मैं समझा नही

उसे, या

वो समझे नही

मुझे॥

नहीं पता,

पता है तो सिर्फ़ यह,

कि कहीं न कहीं

समझ का फर्क है॥

३) दिल.

कुछ एक ऐसा हैं,

जिसे टूटने पर

रखा नही जाता ॥

कुछ एक ऐसा है

जिसे टूटने पर

फेंका नही जाता॥

कितना फर्क है,

जिस्म के भीतर ,

और जिस्म के बाहर ,
दुनिया में॥

Sunday, May 11, 2008

अलविदा,कह दिया माँ से॥

माँ के लिए लिखे काव्य संकलन पर नज़र दौडाई तो लगा, kyun न ये एक वास्तविक सी कविता आपसे बांटु -
पंच्छियो ने सीखे थे,
चहकने के लिए शब्द,
माँ से॥
बड़े प्यार की बातें सीखी,
उन्होंने उड़ना सीखा ,
माँ से॥
शिकारी बिल्ली से बचना सीखा,
savdhani से दाना चुगना सीखा,
माँ से॥
उन्होंने घोंसला बुनना सीखा,
दाना जोड़ना सीखा,
माँ से॥
और अब , सीख कर यह सब,
उन्होंने बनाया,
अलग घोंसला,
अलग जीवन,
कहा अलविदा,
जो न सिखाया था माँ ने,कभी॥
कह दिया माँ से॥

Saturday, May 10, 2008

मेरी माँ

मेरी माँ, दूर हो कर भी देती है साहस,

सदा चलते रहने की सीख॥

सदा खुश रहने कि प्रेरणा,

और बिखेरती है यादों मे प्रीति॥

मेरी माँ अक्सर मेरी आंखों मे आती है,

और आंसू बन बह जाती है॥

मेरी माँ इस तरह से,

मुझको अक्सर नम कर जाती है॥

मेरी माँ आती है सुबह-२ ,

भावनाओं के जरिये पिलाती है चाय॥

मेरी माँ मेरा खाना पकाने मे हाथ batati है,

मुझे बगल मे baithatee aur परोसकर खिलाती है॥

मेरी माँ कितनी अच्छी है,

जो दूर हो कर भी बिलकुल करीब रहती ॥

माँ

aaj से सात साल पहले जब पढ़ने घर से निकला tabhi का एक unmaan है ये कविता..

माँ ने कहा है ,खोजना सच॥

खूब पढ़ना और, बनना सफल आदमी॥

समय पर रोटी खाना,

भूखे मत सोना,

घर कि चिंता मत करना॥

मैंने मौन हो कर सुना,

मुस्कराया और चला आया॥

कैसे कहूँ माँ से-

मुश्किल बहुत है खोजना सच ,

पढ़ना और बनना आदमी॥

समय पर तो माँ खिलाती है रोटी,

यहाँ तो भूखा सोना अनिवार्य है॥

रही घर कि चिंता , तो क्यों न हो !?

क्या इस घर के अलावा, कहीं कुछ है,

जो मेरा है॥

यही सच है, माँ तेरी दुआ मेरा साथ देगी॥

तकदीर बदलेगी,

देखना तेरा बेटा सफल आदमी बनेगा,

जब तक तेरा सिर गौरव से न उठे,

चैन की साँस नही लेगा॥

Friday, May 2, 2008

मैं फिर लिखना चाहता हूँ, सुन्दर कविता !!

मैं फिर लिखना चाहता हूँ,

सुन्दर कविता !!

फिर लिखने से पहले,

रुक जाता हूँ ये सोचकर-

क्या तुम फिर वापस आओगी ??

पहनोगी मेरे शब्दों के लिबास,

सुहाग की लाल साड़ी उतारकर ..

क्या sajaogi अपनी मांग मे-

मेरा शब्द सिन्दूर,

सुहाग की लाल रोली निकाल कर ॥

मेरा मन है लिखूं सुन्दर कविता,

तो क्या ! ? तुम फिर वापस आओगी ॥

kya पहनोगी मेरी धडकनों के-

jhanakte नुपुर,

अपनी सुहाग कि पायलें उतार कर॥

मेरी शब्द बाहें पड़ते ही utaarni होगी-

स्वर्ण मेखला,

सुहाग का मंगल सूत्र ॥

क्या तुम वापस आओगी !!?

पूछता है मन,क्यूंकि

में फिर लिखना चाहता हूँ,

एक सुन्दर कविता ..

Sunday, April 27, 2008

मैं सोचता बहुत हूँ !!

मैं सोचता हूँ-

इतना,कि

सोचकर थक जाता हूँ॥

मैं सोचता क्यों हूँ !? इतना,

मैं ये भी सोचता हूँ॥

पता नही तुम्हे,कि

अगर न सोचता मैं तो,

मैं सोचता बस इतना ,कि

मैं ज़्यादा सोचता नहीं हूँ॥

मैं बीमार तो नहीं हूँ !?

तुम सोचते होगे॥

मगर सोच होती अगर बीमारी,

तो तुम क्यों सोचते मेरे लिए !! ऐसा

मुझे यकीन है,

मेरा दोस्त बीमार नही हैं॥

मैं सोचता हूँ बस इतना,

कि मैं सोचता बहुत हूँ !!

Tuesday, April 22, 2008

रोटी-पन्ना।

मेरी यह कविता मेरे बचपन से जुड़ी है, साथ ही इस के अन्दर हमारी परम्पराओं और संस्कृति की खुशबु भी महकती है,मध्य भारत मे एक परम्परा है अक्षय तृतीय पर विवाह संपन्न करने की , और यह परम्परा बच्चों द्वारा प्रतीकात्मक रूप मे खेली जाती है, हम भी बचपन के उन दिनों मे पीपल के पेड़ के नीचे जाकर (हरदौल बावा के पास ) अपने माटी के गुड्डे -गुडिया का ब्याह रचाते थे, और अपने संगी-साथियों के साथ रोटी पन्ना खेलते थे ,इस खेल मे रोटियां झूठ की होती थी, पकवान भी काल्पनिक होते थे पर भावनाएं बहुत ही पवित्र और अंतरंग से निकली हुई होती थी ॥ लीजिए आप भी इस अनूठी चुहल भरी कविता का लुत्फ़ लीजिए-

आओ लाडो !

खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।

तुम ले आओ अपनी बन्नी ,

मैं ले आया अपना बन्ना ॥

सरकारी दफ्तर जाता है,

रुपये हज़ार कमाता है।

तेरी बन्नी को क्या आता है,

क्या अच्छा खाना बन पाता है ?

मेरा गुड्डा अच्छे खाने का है शौकीन,

रोज़ चाहिए मीठा, रोज़ खाए नमकीन।

खूब सोच लो ठाठ रहेगी,

मेरे घर मे आराम करेगी॥

मगर रुपैया लाख लगेगा,

घर गृहस्थी का साज लगेगा,

होती हो राजी तो आना ,

हम लाल चुनरिया डाल ही देंगे।

तेरी बन्नी को अपना मान ही लेंगे॥

आओ लाडो !

खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।

तुम ले आओ अपनी बन्नी,

मैं ले आया अपना बन्ना॥

Monday, March 17, 2008

बसंत Birah

रति के नयन हीरक जड़े,

मन स्वर्ण है, अभिलाष का॥

देखो बसंत की करनी को,

उच्चावचन यह स्वांस का॥

मदन की देखो दशा अब,

नयनो भरी है raktimaa..

बसंत धडके धडकनों me ,

मुश्किल हुआ सम्हालना॥

किस देवता की करें पूजा,

क्या अर्घ्य दूँ,उस पाद me॥

जो देवता,उजियार दे एक दीप,

मन के इस निर्वात men ..

हे ! देवता,यह ऋतू मादक,

कहतi प्रणय के पाठ नित॥

पर priy बैठे अजनबी बन,

मन पता puchhe कर Vinat..

Sunday, February 3, 2008

Mile- Stone

मेरी प्रथम प्रेम अनुभूति के लिए,

तुम हो न सकी मंजिल,
तुम हो न सकी हम सफर,
तुम न हुई, मेरी हम रही॥

ज़िंदगी की अनबूझ राहों मे,
तुम मिली,
पर साथ न चली॥
चलती भी कैसे,
तुम नही थी, मंजिल,
हम सफर,
हम राही,
तुम तो थी,
मील का पत्थर",
उस राह का ही,
जहाँ से निकलते थे,
मेरी मंजिलों के राहे॥
शुक्रिया,
तुमने दिया दिशा बोध,
और मुझे बताई, तय की गई,
और बाकी रह गई दुरीओं का पता,
और दिया पहुँचने के लिए,
चलते रहने की ज़ुरूरत का एहसास॥
मैं खुश हूँ बहुत,
अगर तुम न होती
तो मैं कैसे बढ़ता मंजिलों कि तरफ॥
शुक्रिया- बहुत,
मेरे Mile - stone..

Thursday, January 31, 2008

चूं-चूं

मेरे आँगन मे आती है,
चूं-चूं चिडियाँ॥
मेरे आँगन मे जाने पर,
चिड सी जाती हैं,
उड़ ही जाती हैं,
चूं-चूं चिडियाँ..
मैं कैसे समझाऊ,
मैं अहिंसक,
उसके कृत का,
अनुमोदन करता हूँ,
आखेट नही,
दाना देना मन है मेरा,
साजिश का संदेश नही..
पर जाने क्यों,
वो मुझ पर शक करती हैं..
मेरे आँगन मे जाने पर,
जा उड़ती हैं चूं-चूं चिडियाँ॥
आदमी मिलकर मुझे,
लेते हैं ,रिक्ति से मेरी,
फायदा॥
मैं सीखता हूँ,
खोखले से ,
खोखले को ,
भरने कि अदा॥

जिंदा इतिहास

इतिहास दोहराए नही जाते,
मगर दफनाये भी नही जाते॥
ज़ख्म भर भी गए हों एक बसर,
पर निशान तो, फिर भी मिटाए नही जाते॥

एहसास दर्द का है अभी भी बाकी,
जानने के लिए, ज़ख्म दुखाये नही जाते॥
यूं ही छेड़ देते हो जिक्र मेरे साकी का,
पता है, बहते हुए अश्क छिपाये नही जाते॥

तुम समझकर भी पूछते क्यों हो ??
क्या मेरी तरह तुमसे सवाल दबाये नही जाते ?
मैं भी पूछता हूँ , खुद से रह-२ कर,
क्या आज भी कोई उम्मीद जिंदा है॥
दिल का कहना है कि आइना नही है वह,
और तस्वीर से चेहरे मिटाए नही जाते॥