दोस्तों !
पिछले दो दिनों से इंदौर शहर के असामान्य हालात सारे देश के लिए चिंता जन्य हैं, मोहल्ला मे संजय जी की पोस्ट पढ़ी तो मन हैरत से भर गया, कितने सजीव रिश्तों कि महक उन्होंने उस पोस्ट मे एक रचना के जरिये प्रकाशित करी है। सुबह कंचन दी से बात हुई , उन्होंने पूछा राकेश क्या हो गया तुम्हारे शहर को ??? मैंने कहा दी...झगडे हो रहे हैं... वो बोली कितनी सहजता से कह रहे हो ??? मैंने कहा बड़ा असहाय लगता है मन को, क्या कर सकता हूँ मैं ???, इस समय सिर्फ़ ज़्यादा करुणा आने पर एक कविता बह जायेगी, पर क्या इस समय मेरे शहर को कविता की ज़ुरूरत है॥?? क्या लोग इतनी असामान्य घटनाओं के बीच मेरी समझाइश को पढ़ने ब्लॉग खोलेंगे , पता नही, पर उनके फ़ोन के बाद मेल चेक किया तो संजय जी का संदेश पाया ऊपर लिखी ब्लॉग पोस्ट के बारे मे, मैंने उन्हें पढ़ा , और एक उन्मान मेरे मन से भी बह निकला॥
जिद !!!
वेदना से भरा मन,
देखा रंगा लहू से जो बदन॥
वो चीखता ही रह गया ,
जो था मरा॥
मैं !अपराध बोध किस बात का ??
अब कर रहा॥
हद से गुजर कर पीर
तब होती भली,
मैं थाम पाता आगे होकर,
बिखरती कली॥
मैं अधिकार से कह सकता उसे,
तू मत झगड़,
वो एक अदब के वास्ते,
खामोशियाँ लेता जकड॥
अब क्या कहें?
किसको कहें?
बस करते रहें कनफुसियाँ॥
लड़ते रहें,
मरते रहें,
करते रहें गुस्ताखियाँ॥
हम क्यूँ सहज हों?
क्यूँ हों कोमल?
हम तो मरेंगे आज-दिन,
झगडा करेंगे रात-दिन ॥
उतरे हैं बुद्धि बेच के,
झगडे हैं दाव-पेंच के॥
मुझको फरक क्या? कौन था वो??
जो मरा॥
मैंने लिए है सर पर अपने,
इंसानियत को,
मारने का फैसला॥
5 comments:
राकेश भाई ;
हम सब को अपनी समवेदनाओं को जागृत करना ही पड़ेगा.जो जिस तरह से अपनी बात कहना चाहता है अच्छी ही होती है..जैसे आपने कही है.समय आ गया है एक समन्वित प्रयास का...अब कोई कहे कि आप ही कीजिये वह प्रयास केवल कविता लिख देने से क्या होगा...तो ऐसा नहीं है...समय आने पर शब्द ही कर्मे की भावभूमि भी बनते हैं...हम सब ने एक स्वर में शहर के दर्द को महसूस किया है....ज़रूर लौटेगा वह अपनी गति और लय पर.आपकी अभिव्यक्ति का वंदन.
उतरे हैं बुद्धि बेच के,
झगडे हैं दाव-पेंच के॥
मुझको फरक क्या? कौन था वो??
जो मरा॥
मैंने लिए है सर पर अपने,
इंसानियत को,
मारने का फैसला॥
sundar panktiyan..asha hai aap jaise vichar rakhne walon ki madad se shighra aapka shahar shanti ki raah par laut aayega
aameen !!
ek din me kaise bhul jate hai ham padosi ka dharma, kaise bhul jate hai.n ki ham insaan hai, danga..ye kaisa parva hai mere bhai,jo hame pashu bhi nahi rahane deta.
sach di !!!
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