Monday, July 28, 2008

सावन की अगन



पेश है सावन की अगन मे जलता हुआ एक बिरह गीत.




जाने कौन प्रीति की मारी,

गाती होगी सावन गीत,

एक बिरह की गाथा में ही,

जाएगा यह सावन बीत॥


रे ! पछुआ के पवन चुभीले,

जा तो उसकी ओर,

बदरी भर ले , शीतल नीर,

छींटे डालो उसके ठौर ..


कहना एक बिरह का मारा,

रोया इतना रात,

ख़ुद से ही कह पाया पर,

वो अपने दिल की बात।


पर घुमड़े से मेघ देख कर,

मन में आई बात,

क्यूँ न, भेजे एक बदरी भर,

आंसू तेरे पास॥


तू अब गा-गा कर भीगेगी,

मेरे अश्रु गीत,

या आने का जतन करेगी !

मेरी अनजानी मीत।


माना तुमसे मिले नहीं,

पर हम को है अनुमान,

सावन तेरे नयन हो गए,

तू है राह देख हैरान॥


चित्त नही लगता दुनिया में,

मन रहता एकांत,

कौन नीड़ का भटका पंछी

ढूंढ़ रहा है ठान॥

Saturday, July 26, 2008

सावन झरा,झर पड़ी मधु बतियाँ।

इस बार इंदौर में बारिश ने थोड़ा देर से दस्तक दी, और जन मानस बेचैन हो गया कि पता नही इस बार क्या होगा ??!!



मगर सावन अब झरना चालू हो गया है, और मेरा मन भी !! तो लीजिये लुत्फ़ लीजिये मेरी नवीन कविता का ,

सावन झरा,
झर पड़ी मधु बतियाँ।
कोंपल-कोंपल सिहरी,
सिहरी, सारी रतियाँ॥
प्रिय जिनके हैं संग,
उनके अगन प्रेम की उजरी,
जो हैं बिरहन उनके भी,
अगन बिरह कि बिखरी,
पियु-पियु के कोलाहल से,
बादल-बादल सिहरे॥
कौतुक मन मे यूँ उमडे,
कि सारा सावन सिहरे॥
सावन झरा,
झर पड़ी मधु बतियाँ।
कोंपल-कोंपल सिहरी,
सिहरी, सारी रतियाँ॥

Wednesday, July 16, 2008

"गुनाहों का देवता" पढ़ने के बाद मेरी मनोदशा..


पिछले दिनों की एक बात आप से बिना कही रह गई थी, आज ये एहसास के मोती धागे मे पिरो लेते हैं, सुंदर कंठइका ( kanthika) बन पड़ेगी।

कंचन दी, का मन था की मैं "गुनाहों का देवता" पढूं , मुझे उपन्यास बहुत ज़्यादा नही भाते फिर भी दी ने अगर कुछ बोला है तो वो प्रासंगिक तो होगा, हमने उनसे ही कहा आप पढ़वा दो, बस फ़िर क्या था, हुई इस बात की जोड़-तोड़ की लखनऊ से उपन्यास हम तक कैसे पहुंचे, पर उनकी जिज्ञासा ही अनुपम होती है, हमारे एक सहकर्मी का लखनऊ जाना इसी बीच बन पड़ा, इसके पीछे भी कहानी बहुत रोचक है की कैसे हमारे और दी के बीच का यह अंतराल कृष्ण उद्धव और गोपियों के प्रसंग की तरह रोचक रहा, जब तक की यह पुस्तक दी (कृष्ण ) से उद्धव ( राजेंद्र राठोड) के द्वारा गोपी (मैं) तक नही पहुँच गई॥
दी ने जो लिखा मेरे लिए इस पुस्तक पर ,वो मैं अलग से ही किसी दिन एक पूरी post के तहत आप से आप से कहूँगा।


इस उपन्यास के बारे मे शायद ही कोई न जानता हो, क्यूंकि इस की उपस्थिति हिन्दी साहित्य जगत मैं अग्रणी रही है, और लेखक के विषय मे भी यही बात लागू होती है। बुद्धि

साधारण बुद्धि वाला मैं, इतनी उत्कृष्ट कृति को जब पढने बैठा तो इस हद तक रूचि जागी की एक दिन office से हाफ डे लेकर आ गया । या यूँ कहें, कि चंदर और सुधा , दोपहर की छुट्टी तक पहुँच गए अपनी मोटर से और बोले भइया चलो, ये कहानी आगे पढ़ दो हमे बेहद तकलीफ हो रही है, पुस्तक के अन्दर॥

सुधा की विदा करा के तो हम office ही गए थे, पर हमे नही पता था कि जो हाफ डे हम ले रहे हैं वो सुधा के महा प्रयाण के लिए है॥ मन तीन दिन तक बेहद भारी रहा, जैसे तैसे हम इस उपन्यास के अन्य किरदारों , बिनती और पम्मी के सहारे बाहर निकले जो "जिंदगी और भी है" की तर्ज़ पर हमे अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी मे छोड़ कर पुस्तक मे छुप गए। पर आज कल रात को नींद टूट जाती है, और गेशु कहती है, समर्पण मे सम्यक खुशी है, ...

बुआ आकर कहती है, में भी इसी समाज का सच हूँ, और डॉ शुक्ल जैसा चरित्र भी आ कर पिता कि तरह विशाल हृदयता से सहला के चला जाता है, सुधा बिनती की मांग मे भरी-२ मुस्कुरा देती है, चंदर उसकी बात का कितना मान रखता है। आज कल जब चाय पीता हूँ तो सुधा kई चंदर को दी हुई चाय का ध्यान आ जाता है।

इन सब बातो के मन मे परिभ्रमण और पुस्तक के अंतर संकलन से मेरे मन मे कुछ कवितायेँ बनी, शायद चंदर,सुधा, पम्मी और गेशु मुझसे इस बात कि शिकायत नहीं करेंगे कि मैंने उनको पढने में कहीं भूल की। में कृतग्य हूँ उस महान लेखक के प्रति जिसने इतनी सशक्त कहानी लिखी कि उस कहानी का एक चरित्र हो जाने का दिल करता है।

में कोटिशः नमन करता हूँ कंचन दी को, जिन्होंने मुझे संवेदनाओं के सागर मे डुबकी लगाने का अनुपम सानिध्य संयोग जुटा कर दिया ।

१)

विवश था !

वक्त से।

था तो, मजबूत वो,

पर वक्त,

उसके हिस्से का,

मजबूती से,

कमज़ोर था॥

२)

रात, कारी सलों मे,

पसरी हुई है।

वो ढूढती है,

दिया सलाई॥

ताकि कर सके,

छेद , तम् की इस,

चादर मे॥

दिखने लगे दूर तलक,

तम् के कुआरे पन मे,

चरित्र हीनता का दोष॥

३)

शलभ की विपदा को,

लिप्सा तो न कहो॥

माना तुम हो, बुद्धि जीवी,

पर तुम, शलभ तो नहीं॥

होते जो तुम तो,

कहते न प्रेम की ,

अनुभूति को लिप्सा,

की गंदगी॥

वरन होते, खुद रात,

रोते- लिपट-लिपट।

खोते तुम प्राणों को,

ज्योति में सिमट-२॥

अँधेरे मे घुट कर जीने से,

लगता ये अंदाज़ भला,

उजारे के आलिंगन मे,

मौत का रूप उजला-२।

शलभ की विपदा को,

लिप्सा तो न कहो !!!!!!

Sunday, July 6, 2008

थोड़ा तो पिघलिये

दोस्तों !

चार दिन हो गए , शहर अभी भी कर्फ्यू से आजाद नही हुआ, घंटे दो-घंटे की छूट जैसे ही मिलती है सड़के भर जाती हैं, पेट्रोल पम्प लुप्त हो जाते हैं। सब्जियों का दाम गुणात्मक बढ़ जाता है, दूध डेरी पर लम्बी पंक्तियाँ और इस बात का डर की कहीं दूध खत्म न हो जाए ,बेचैन कर देता है॥


मेरा शहर इस बेचैनी के साथ जी रहा है॥


इस कविता में एक अपील है अमन के लिए, शान्ति के लिए और अपने शहर को वापस अपने रुतबे मे देखने के लिए।


पथराइए नही,

पिघलने का प्रयास करिए॥


पिघलने लगें,


तो रुकिए नहीं,


बहने का प्रयास करिए॥


बहने लगें जैसे ही,


तो पहुँचने का प्रयास करिए॥


जब पहुंचे ,


तो इतराइए नही,


समष्टि मे मौन ,


खो जाने का प्रयास करिए॥


जब खोने लगें,


तो ख़ुद को,


भूल जाने का प्रयास करिए ॥


तो फिर चलिए,


अपनी यात्रा शुरू करिए,


थोड़ा तो पिघलिये॥


थोड़ा तो पिघलिये॥


Saturday, July 5, 2008

जिद!!!!

दोस्तों !
पिछले दो दिनों से इंदौर शहर के असामान्य हालात सारे देश के लिए चिंता जन्य हैं, मोहल्ला मे संजय जी की पोस्ट पढ़ी तो मन हैरत से भर गया, कितने सजीव रिश्तों कि महक उन्होंने उस पोस्ट मे एक रचना के जरिये प्रकाशित करी है। सुबह कंचन दी से बात हुई , उन्होंने पूछा राकेश क्या हो गया तुम्हारे शहर को ??? मैंने कहा दी...झगडे हो रहे हैं... वो बोली कितनी सहजता से कह रहे हो ??? मैंने कहा बड़ा असहाय लगता है मन को, क्या कर सकता हूँ मैं ???, इस समय सिर्फ़ ज़्यादा करुणा आने पर एक कविता बह जायेगी, पर क्या इस समय मेरे शहर को कविता की ज़ुरूरत है॥?? क्या लोग इतनी असामान्य घटनाओं के बीच मेरी समझाइश को पढ़ने ब्लॉग खोलेंगे , पता नही, पर उनके फ़ोन के बाद मेल चेक किया तो संजय जी का संदेश पाया ऊपर लिखी ब्लॉग पोस्ट के बारे मे, मैंने उन्हें पढ़ा , और एक उन्मान मेरे मन से भी बह निकला॥

जिद !!!

वेदना से भरा मन,
देखा रंगा लहू से जो बदन॥
वो चीखता ही रह गया ,
जो था मरा॥
मैं !अपराध बोध किस बात का ??
अब कर रहा॥

हद से गुजर कर पीर
तब होती भली,
मैं थाम पाता आगे होकर,
बिखरती कली॥

मैं अधिकार से कह सकता उसे,
तू मत झगड़,
वो एक अदब के वास्ते,
खामोशियाँ लेता जकड॥

अब क्या कहें?
किसको कहें?
बस करते रहें कनफुसियाँ॥
लड़ते रहें,
मरते रहें,
करते रहें गुस्ताखियाँ॥

हम क्यूँ सहज हों?
क्यूँ हों कोमल?
हम तो मरेंगे आज-दिन,
झगडा करेंगे रात-दिन ॥

उतरे हैं बुद्धि बेच के,
झगडे हैं दाव-पेंच के॥
मुझको फरक क्या? कौन था वो??
जो मरा॥
मैंने लिए है सर पर अपने,
इंसानियत को,
मारने का फैसला॥


Friday, July 4, 2008

मेरे मरने के बाद,-१० ( धांधली )

मेरे मरने के बाद,

मित्रो ! कल मेरे जाने के बाद के लिए लिखी गई मेरी यह क्षणिका , आज की व्यवस्थाओं को अपने इर्द-गिर्द देख कर लिखी गई है, मन कहता है, जीवन के उस पार भी कहीं यही लेन - देन तो नही होगा !!?

धांधली

यमदूत लेखा लेंगे,

यमराज धमकी देंगे॥

वहां भी देखना होगा,

क्या कुछ ! ले-देकर

बात बनानी होगी॥

कृमशः

Wednesday, July 2, 2008

मेरे मरने के बाद,

प्रिय पाठको !!
लीजिये एक और अनुभूति आपसे बांटता हूँ,

कल का चलन ??



आधुनिकता के उस दौर में,


शायद तुम मुंडन भी न कराओ॥


तीसरे दिन,


तुम व्यवसायी होने पर,


दुकान खोलने की जल्दी मे रहोगे॥


और नौकरी पेशा होने पर,


हाफ टाइम करने की कोशिश मे॥


जैसा भी हो,


देख लेना !


सुविधा से,


अस्थि विसर्जन॥


(कृमशः)