१) योग्यता के आभाव में,,
मैं कैसे दूँ उन्हें !
आमंत्रण।
कहते हैं,
शेरनी का दूध रखने को,
सोने का पात्र चाहिए॥
मेरी लकड़ी कि कठोती ,
पात्रता के आभाव मे ,
मौन हो गई है,
आहिस्ता से॥
२) मैं समझा नही
उसे, या
वो समझे नही
मुझे॥
नहीं पता,
पता है तो सिर्फ़ यह,
कि कहीं न कहीं
समझ का फर्क है॥
३) दिल.
कुछ एक ऐसा हैं,
जिसे टूटने पर
रखा नही जाता ॥
कुछ एक ऐसा है
जिसे टूटने पर
फेंका नही जाता॥
कितना फर्क है,
जिस्म के भीतर ,
और जिस्म के बाहर ,
दुनिया में॥
7 comments:
न. २ पसंद आई. बधाई.
तीनों ही क्षणिकायें बेहतरीन हैं, पहली क्षणिका में प्रयुक्त बिम्ब प्रभावित करते हैं..
***राजीव रंजन प्रासाद
मेरी लकड़ी कि कठोती ,
पात्रता के आभाव मे ,
मौन हो गई है,
आहिस्ता से॥
bahut khoob...bahut uttam.
सच तीनों ही उम्दा है।
bahut badhiya
hauslaafzai ka bahut shukria..
कितना फर्क है,जिस्म के भीतर ,
और जिस्म के बाहर ,
दुनिया में॥
sach kaha..!
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