Saturday, November 28, 2009
टूटता तारा
ख्वाहिश न रहे ख्वाहिश,
हकीकत हो सके!
अँधेरी रात मे ताकता,
रहा आसमान..
कि कह दूँ,वोः
जो कह कर ,
तब्दील हो जाये
ज़िन्दगी मे॥
मगर इंतज़ार है,
कि कोई,
तारा टूटे तो सही!
कहते हैं मनौती ,
हो जाती है पूरी
देखने से ऐसा,
पता नहीं था
तब ,जब सोच रहा था-
एक रात,कि तुम
मेरी हो !
और अनायास ही
दिखी थी दो अलग-२
दिशाओं मे छूटती चिंगारियां..
सुबह-२, तुमने स्वतः ही
स्वीकार लिया था प्रेम!
मेरा प्रेम!
मैंने कही थी,
बीती रात की जिज्ञासा,
और चिंगारियों का चित्र,
तब तुमने ही कहा था,
पूरी हो गई न ख्वाहिश,
जो माँगी थी,
तब ! जब एक तारा टूट रहा था।
अब मुझे तुम्हारी बात पर
यकीन बहुत आता है॥
Tuesday, November 10, 2009
खुदा.देवता.वाहेगुरु.और GOD
एक पीर अपनी दरगाह से
बाहर निकला तो पाया
सामने दरगाह के,
मन्दिर है एक बड़ा॥
चल कर पहुँचा वहाँ,
पर नही मिला कोई देवता,
सुनाई दी आती हुई पास से,
कुछ आवाजें , अट्टहास,
और ठहाके॥
आगे बढा तो मन्दिर की,
दीवार से ही लगा था ,
एक गिरजा,,
जहाँ पर क्राइस्ट के साथ
बैठा हुआ था देवता॥
पीर को देखते ही उसने कहा,
आइएगा भाई सा ,
कैसे निकलना हुआ!
पीर कहने लगा,
आज गुरूद्वारे पर भीड़ थी,
सोचा वो मित्र तो आने से रहा,
इस तरफ़ को रुख किया,
तो मन्दिर बड़ा सा दिख पडा॥
क्राइस्ट ने इस पर कहा,
अच्छा बहुत तब ये हुआ,
इस बहाने मिल लिया,
बरना ये आदम जात ने,
बांटा हमे है इस कदर,
की इनकी जिदों के वास्ते,
तू है खुदा,ये देवता,
मैं GOd हूँ ,और वो,
वाहे गुरु हो रह गया॥
Friday, October 30, 2009
एक ख़त सनम का
एक बाइबल जो,
Monday, October 12, 2009
मुझे आधार तो मिल सकता था!
Thursday, September 10, 2009
का बरखा जब कृषि सुखानी
कल से हो रही बेसुध बारिश से मन मे उपजी एक विचार चेतना,
एक बेसुध बारिश,
खबर से परे,कि,
अब तक रुका नहीं,
कोई किसान,
उसका एहसान लेने..
कईयों ने फेक दिया बीज,
माँ धरती कि कोख मे,
सोचे बिना,
कि तुम आओगे या नहीं,
करने उन्हें फलित,
करने सम्भोग...
तुम तो हो गए हो,
आवारा, मेघ,
कर्त्तव्य विमूढ़ शायद,
जब चाहो,
रखते हो मौन,
चाहे जब गरजना,
चालू कर देते हो..
कितनो ने तो,
छोड़ ही रखा है,
खाली का खाली,खेत.
धूल उड़ गई,
उड़ गई रेत,
क्यूँ आ गये मुह दिखाने,
अब, क्या हुआ अंतर्द्वंद्व.
ऐसा ही हो गया है,
हमारा समाज,
बेटा तब आता है,
वापस घर रात को,
जब माँ, टूट कर ,
सो जाती है,
और संताने,
तब आती हैं राह पर
जब पिता को,
आ चुका होता है,
हृदयाघात..
स्त्री पर तब ,
आता है प्रेम,
जब पढ़ चुके होते हैं,
तलाक..
तब पता चलती है,
सही राह,
जब हो चुका होता है,
बड़ा वर्ग , गुमराह..
Sunday, September 6, 2009
हमने तो बस प्रीति निभाई..
एक कविता, जो निष्प्रह प्रेम के लिए है, धरती और आकाश के प्रेम की कविता है, ऐ क्षितिज की कविता है...
जैसे तुम भीग गई हो मुझसे।
मुस्का कर लहराती है बगिया,
जैसे कुछ सीख रही है तुझसे॥
तुम हो जाती हो, अम्बर,
छा जाती हो मुझ पर।
मैं धरती हो जाता हूँ,
ओढ़ बैठता तेरा अम्बर॥
कब क्षितिज सच होता है,
कब धरती नभ से मिलती।
पर देखो तो नज़र गडा कर,
दिखती तो है मिलती॥
वैसा ही कुछ प्रेम हमारा,
मिलन नहीं हो पाया,
पर देखो तो कैसे बदरा,
धरती के घर आया,
कि पूरा आँगन छाया...
जब बरसे बदराए नैना,
धरती उमस भरे थी।
रोती सी दिखती न थी,
पर रोती बहुत रही थी॥
कौन करिश्माई है सक्षम,
ऐसा प्रेम जुटाया।
दूर पथिक दो,राह अलग हो,
पर मन कैसे मिलवाया॥
होगा कोई मकसद उसका,
जिसने प्रीति रचाई,
उसकी मर्ज़ी को माथे रख,
हमने तो बस प्रीति निभाई......
:)
Sunday, August 9, 2009
वीर की राखी
सावन आया और मन मे जगा नेह, बहिन का भाई पर अतुल नेह॥
इस बार कुछ अवसर एसा बना की लग ही नही रहा था की दीदी के पास जाना हो पायेगा, लेकिन फ़ोन पर बात हुई और मुह से निकल गया दीदी आप घर (shahpur) पहुँच जाओ, तीनो भाईओं को राखी बांधनी हो तो ! बस उनको तो बात जम गई, उन्होंने किसी भाई को नही कहा की कोई लेने आ जाओ, उन्हें सबकी व्यस्तता का एहसास था, उन्होंने दोनों बच्चों को कार मे बिठाया और आ गई झाँसी से शाहपुर (Sagar) । हमने भी सारी मजबुरिओं को खारिज किया और रात ३ बजे बैठे लोह्पथ गामिनी मे और उषाकाल मे घर ... लखनऊ से कंचन दी ने भी भेजी थी बहुत सुंदर राखी तो सोचा कलाई पे तो बहिन ही बांधेगी॥
कल रात कंचन दी से बात हुई तो ज़िक्र हुआ वीर भइया का, दी से दिल का मर्म सुनकर मुझे कुछ भाव जगे , मैने फ़ोन रखते ही diary मे उतार लिए, और वापस लगाया दी को फ़ोन॥ वादा किया की आज की पोस्ट कलाई के धागे के नाम,
पढिये एक बहिन का राखी संदेश उसके फौजी वीर भैया के नाम, यह कविता गई भी जा सकती है...
गा कर देखिये ..आपको सुंदर लगेगा इसका राग।
वीर भइया को भेजी है राखी,
धक२ अब ये कलेजा करेगा।
बाँध लेना तुम ख़ुद ही कलाई,
नेह मेरा तुम्हे जो मिलेगा॥
भाल रखना तो अंगुली ज़रा पल,
टीका उभरा हुआ सा लगेगा।
वीर हो कर सिपहिया गए हो,
पूरा भारत ही अपना लगेगा।
मैं अकेली नही तेरी बहिना,
तुझे हर बहिना का टीका सजेगा।
तुम हो कर वहां ,हो यहाँ भी,
करते बहिनों की इज्ज़त की रक्षा।
इससे और बड़ा क्या मेरे भैया,
राखी बंधाई मे मुझको मिलेगा॥
Sunday, August 2, 2009
मत सोचिये की मैं ज़रा आता हूँ और बहुत गायब रहता हूँ,,, वक्त शायद कुछ और ही चाहता है॥
मैं खुश हूँ आज बहुत आपसे दिल की बात बांटने मे, की मुझे और बेहतर नौकरी मिल गई ॥ निजी कम्पनिओं मे चलन को हो गया है,की जॉब पर रहते हुए आपकी तरक्की बाधित हो जाती है, चाहे आप कितने ही मुकम्मल तरीके से काम मे मशगुल हों... मेरे साथ भी लगभग वही हुआ,,, पर किस्मत और आप सब की दुआ से मुझे नया मुकाम मिला, मैं अब एक नई कंपनी के लिए काम करूँगा ॥ एक छोटी सी कविता मेरी बात कह रही है, गौर करिएगा ,
एक कमरा अँधियारा था
एक दीप रखने से पहले,
कई असफलताएँ हैं,
लोग कहते हैं -मेरे जीवन मे,,
मगर मुझे ज्ञात है,
एक सफलता का दीप,
सारी असफलताओं का ,
तिमिर पी लेगा सदा के लिए॥
Sunday, June 28, 2009
Monday, June 22, 2009
उसने माँगा है मुझे,अगले जनम के लिए,
दोस्तों, देखिये न फीर कोई ज़िन्दगी मे आया, और कहने लगा इस बार तो हम मजबूर हैं, अगले जनम तेरे सनम,,,
हम से पूछिये क्या होता है दिल का, हाल॥ फिल हाल तो सुनिए इस बात के निकलने के बाद की बात का ज़िक्र!!
उसने माँगा है मुझे,
अगले जनम के लिए,
क्या सौगात दूँ,इस बात पर,
अपने सनम के लिए॥
मैं भी बुन रहा हूँ किस्से ,
जो बनेंगे जिंदगी के हिस्से,
तुम और मैं जब हम हो जाएँगे,
धड़कन -२ मैं बंध जायेंगे॥
पर अब हम किसी शहर मे नही मिलेंगे,
कोई छोटा गाँव देख ,हम पैदा होंगे,
एक झरना, एक पर्वत होगा,
गाय, बकरियां भेड़े होंगी।
कश्मीरी लड़की सी तुम,
सुंदर पोषा पहन कर आना,
मुझ ग्वाले को एक पोटली,
रोटी सत्तू बंध के लाना ॥
बैठ पर्वतों पर जीवन को गायेंगे हम,
अपनी गोद मे सर तेरा रख,
जुल्फों को सहलायेंगे हम॥
तुम नज़रों से छेड़ोगी ,और,
पलक झुका लोगी पल भर मे॥
फिर पलकों को ऊपर कर,
फलक उठा लोगी पल भर मे॥
मैं लिखूंगा, कवितायें,
तेरे रूप की तेरे रंग की।
गा-गा कर तुम्हे सुनाऊंगा,
मधु राग और नव-तरंग भी॥
मधुशाला से तेरे होंठ ये,
हो जायेंगे मेरे अपने,
सच हो जायेंगे सब सपने॥
धीर धरोगी, और मुझे भी,
धीरवान कर दोगी तुम,
मुझे मिलोगी जिस दिन प्रिय तुम,
कंचन जीवन कर दोगी तुम॥
Sunday, June 14, 2009
एक कविता तुम पर॥
एक रोमांटिक भाव
कविता, फुनगी पर,
चहकती एक चिडिया पर,
एक कविता, घिर आए बादरों पर,
कविता एक, रिमझिम-२
सावन पर॥
और, एक कविता तुम पर॥
लंबे बालों को जूडे मे,बांधे
एक लड़की पर,
मचलती, चहकती,
एक बातूनी लड़की पर,
और, एक कविता तुम पर॥
आषाढ़ मे आशा लगाए,
मेघों से,दरकती हुई ज़मीन पर॥
धरती मे धंसे प्यासे कुँए पर,
चंद्रमा पर कविता,
सितारों पर कविता,
और एक कविता तुम पर॥
गुलाबी-सफ़ेद पोशाक पर,
गाल मे पड़े गड्ढे पर,
अपने वर्ण पर, कद पर,
काया के सौष्ठव पर,
यही है प्रिये!!
एक कविता तुम पर॥
Sunday, June 7, 2009
विचार केंद्रित कवितायें
दो विचार केंद्रित कवितायें,
१) चक्रब्यूह मे फंसा एक और अभिमन्यु!!
चक्रब्यूह कई!
कई अभिमन्यु,
कई-२ कौरव//
मैं भी हूँ......
एन कई चक्रब्युहों मे से
किसी एक मे फंसा,
अर्धशिक्षित,
अभिमन्यु॥
घुस तो गया हूँ,
पर तोड़ रहा है,चक्रब्यूह,
मुझे.....!!
वैसे ही जैसे की छल के कौरवों ने,
सम्पन्न कर दिया था,
एक वीर अभिमन्यु!!
पाप भी सक्षम है,
जीतने में,
दुनिया की किताब कहती है॥
कहता है चित्र-
विचित्र बड़ा है,
न्याय और अन्याय
के बीच तालमेल॥
कौरवों का तंत्र
खुश है,आज भी,
तैयार है बलि, उसके लिए।
चक्रब्यूह मे फंसा एक और अभिमन्यु!!
२) माना तुम हो बुद्धिजीवी,
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो!
माना तुम हो बुद्धिजीवी,
पर तुम ,
शलभ तो नही!
होते जो तुम तो,
कहते न प्रेम की
अनुभूति को,
लिप्सा की गंदगी!!
वरन होते ख़ुद रत!
रोते लिपट-२ ,
खोते तुम प्राणों को,
ज्योति मे सिमट-२,
अंधेरे मे घुट कर जीने से,
लगता ये अंदाज़ भला।
उजारे के आलिंगन मे,
मौत का रूप उजला-२!
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो!!
Sunday, May 24, 2009
कुछ क्षणिकाएँ
चाँद को लेते हैं, कभी मामा तो कभी सनम, कभी इसका कभी उसका, कैसे ??? लीजिए बताता हूँ,
अब एक रोमांटिक क्षणिका !!
तुमने अन्दर आने का पूछा !
मैंने दी अनुमति!!
मगर फिर भी,
उतना अन्दर,
न आ सकी,
जितने अन्दर तक,
आने के लिए ,
मैंने दे दी थी अनुमति !!
Sunday, May 10, 2009
मेरी माँ !!!
मातृत्व दिवस की शुभ युति पर आये माँ की स्तुति करें। उनका गुण अनुवाद करें॥
आज सुबह जब दैनिक भास्कर अख़बार उठाया तो पाया की , बहुत कुछ लिखा गया है, और बहुत ही संवेदनात्मक लिखा गया है, मन हुआ हम भी माँ के बारे मे लिखें, कुछ कहें माँ के लिए... अपना कहें उससे पहले अख़बार मे जो पढ़ा और मन बना उसकी बात करते हैं,
मुनव्वर राणा का ashaar है,
मुनव्वर माँ के आगे, yun कभी खुल कर मत रोना,
jahan buniyad हो, इतनी nami achchhi नही होती॥
आँखें नम हो गई,
nida fazali sahab भी क्या कहते हैं ,गौर kariye-
besan की saundhi roti पर khatti chatni जैसी माँ,
याद आती है chauka baasan,chimta fukni जैसी माँ॥
बीवी,बेटी,बहन,padosan,thodi-२ si सब मे,
दिन bhar एक rassi के ऊपर chalti natni जैसी माँ॥
इसके अलावा भी , Chndrakant devtaale,विष्णु naagar,Manglesh Dabraal,राजकुमार kesvani,leeladhar mandloi जैसे siddh hast लोगो ने माँ की स्तुति मे कोई kami नही rakhi,
इसके अलावा भी जितना जो भी chhapa, kafi sparshi lagga॥
इतनी सुंदर baton को पढने के बाद, मेरा मन koutuk करने लगा की वो ऐ सब किस से कहे, तो मैं आ गया, इस peepal के नीचे॥
jahan हम सब जमा है,
माँ दूर है, पर pal-२, विचार मे रहती है,
kehti है, क्या khaya , सुबह से ??
मैं, कहता मन ही मन, माँ, bhukha hun,
अभी नही kia नाश्ता,
वो हो jati है shunya, aankho मे bhar दो aansu,
pallu से paunchh लेती है, khaara pan,
पता है उसे, कितना namkeen पसंद है bete को॥
drudhtaa से puchhti है, kyun, laaparvahi॥
वो puchhti फ़ोन पर , कैसा चल rahaa है सब,
जान कर भी, की सब ruka हुआ है, उसके बिना॥
ehsaas dilati है, की, rukna नही है zindagi, किसी भी तरह॥
abhav से ऊपर भी होगी baten एक दिन।
kahti है माँ, और फिर paunchh लेती है pallu से aansu।
pankha nhai उसके, पर मन मे parvaaz बहुत हैं,
वो आ कर sahla jati है, tab-२ जब-२ nibatti है, chauke से,
और jhaank कर देख jati है, tab, जब मे soya हुआ होता hun,
कई bar देखा है सुबह,कोई dhank जाता है chadar ,
रात की badhi हुई shardi-garmi के mutabik॥
उसकी बहुत ichchha है, मेरा घर हो बड़ा sa इस शहर मे,
shadi हो, मेरे bachche हों, वो सब मेरे लिए जुटा देना chahti,
और हो जाना chahti बहुत खुश॥
जब-२ मैं बढ़ता hun एक भी paydaan,
वो paunchh कर दो bund aansu pallu से,
lapet लेती है मुझे, aanchal मे,
मेरी माँ को पता है, की मुझे कितना namkeen पसंद है॥
मैंने माँ के लिए likhi कुछ और कवितायें ब्लॉग मे post kee हैं, अगर आप पढ़ना चाहते हैं तो zurur नीचे likhi link को click करें।
http://29rakeshjain.blogspot.com/2008/05/blog-post_11.html
http://29rakeshjain.blogspot.com/2008/05/blog-post_5529.html
http://29rakeshjain.blogspot.com/2008/05/blog-post_10.html
takniki khamiyon से कुछ कमी है , post के proper visualization मे, kshama करे, पर मैं इस post मे देर नही करना चाह रहा krupya, मेरी mano दशा को समझें.
Sunday, May 3, 2009
कागज़ की गाय
शीर्षक है, कागज़ की गाय-
गौर करियेगा-
कागज़ पृष्ठ से, मढे,
घृत के डिब्बे,
को ला कर,
अपने बर्तन मे ,
जब उडेला और,
फेंका वह रिक्त पात्र
बच्चे ने अकस्मात् ही पूछा,
माँ! यह देखो गाय,
माँ! गाय को यहाँ क्यूँ बनाया॥
गाय तो दूध देती है,
तब क्या, ! कागज़ की गाय,
घी देती है॥
माँ ने सुना , हँसा !!
और बस बताया,
की नहीं बेटा,
दूध से ही घी बनता है॥
पुनः जिज्ञासा !!! कैसे ??
यह तो माँ को भी नही पता !!:)
क्यूंकि उसे तो गौरव है,
आधुनिक माँ होने का, जिसे
उपलब्ध होता रहा है, सदा,
कागज़ की गाय का घी।
और प्लास्टिक की गाय का दूध,
इस बड़े शहर में॥
Friday, April 17, 2009
मित्रो तमाम कह जाने के बाद भी कुछ शेष रह जाता है,
देह से प्राण चुक जाते हैं॥
गौर फर्मायिएगा मेरा उन्मान, शेष .......
प्रष्ठ कम हैं शेष,
लिखना अभी विशेष।
बहुत है मन मे,
अति शेष॥
मगर सांसो का क्या,
ये अनिमेष॥
सब धरा रह जायेगा ,
इसी धरा पर,
हो विशेष,
या अति-विशेष।
जब होगा नहीं,
देह में ही,
जीवन कुछ शेष॥
लगने लगेंगे,शब्द कम,
कम अनुभूतियाँ,
प्रष्ठ भी अतिरेक,
सब कुछ समा ही जाएगा,
एक शब्द होगा मौत का,
मौन हो जाएगा- राकेश॥
Sunday, April 12, 2009
Recession का अवसाद
मित्रो ! recession का दौर जो बाज़ार मैं आया है उसका दर्द वही जान सकता है जो वास्तविकता मे उससे हो कर गुज़र रहा है, मेरी ये पोस्ट ऐसे ही एक ऑफिस से उपजा दर्द है, जिसमे मैंने कई दिलों के अन्दर चल रहे तूफ़ान का वर्णन करने की कोशिश की है॥
आशा है आप सभी को सटीकता का एहसास ज़ुरूर होगा॥
आइए आपको ले चलते हैं एक ऑफिस के भीतर जहाँ कुछ सह कर्मी दोपहर का खाना खाने बैठे है जो इस बात से वाकिफ हैं कि उनके कुछ साथी जॉब खो चुके हों, और अब उनमे से किसी का नाम आ सकता है,
दोपहर के खाने मे हुआ ज़िक्र,
क्यूँ नही लिखते वैसा ! कुछ॥
जैसा चल रहा है।
मैं मौन रह जाता हूँ,
कुछ कहूँ तो कैसे ?
जुटाए ही नही थे शब्द ,
कुछ ऐसा कहने के लिए,
जैसा चल रहा है॥
घटा ही नही कुछ ऐसा, जैसा,
घट रहाहै॥
सोचता हूँ! क्यूंकि सोचना
मन की खुराक है!
क्यूँ लौटता हूँ घर,और,
क्यूँ जाता हूँ काम पर।
कल-पुर्जे सा मैं क्यूँ?
लगातार दोहराता हूँ
अब भी सब कुछ,
जब लगता है कि,
इस दोहराव से कोई,
रस छीन लेना चाहता है॥
अब भी निकलता हूँ ,
उसी समय, उसी क्रम मे,
मगर उत्साह उतना नही होता,
होता था जितना ,कुछ ही,
दिनों पहले तक।
सोचता हूँ ! उन सभी चेहरों के बारे मे,
जो कभी अपरिचय से बंधे थे,
फिर परिचय मे बुने गए,
और अब लगने लगे हैं,
जैसे सूत से सूत का रिश्ता!!
वो कैसे मिलते होंगे अपने परिजनों से,
चेहरे पर मल कर सच कि उदासी॥
घर पहुँचते से ही, बच्चे चिपक जाते होंगे,
छाती से,मगर अब बांहे उन्हें भरकर,
छोड़ देती होंगी यक-ब-यक॥
एक गिलास पानी के साथ,
दाग दिया जाता होगा,
एक गोली कि तरह चुभीला प्रश्न,
आज क्या हुआ ? कुछ हुआ आगे?
कभी सर दर्द,
तो कभी बाद मे बात
करने का बहाना सुनकर,
वो ख़ुद ही बदल लेती होगी प्रश्न,
कभी ख़ुद ही पूछते होंगे पहुँच कर घर,
तैयार नही हुई ! बाज़ार जाना था न!!??
वो टाल देती है ज़ुरुरतों को,
परिस्थितियां पढ़कर॥
कह रही थी पिछले ही हफ्ते ,
क्यूँ न चला जाए, किसी हिल स्टेशन पर,
बेचैन कर रही हैं गर्मियां॥
पर आज अचानक ही बदल दिया है,
उसने मौसम का विज्ञान!!
कह उठती है, इस बार कितनी सुखद है,
आँगन के आम कि छांह।
विशेष नही लगती गर्मी!॥
जाने कितनी ही बातें इस प्रबाह में,
बहती हैं,पर मन कचोट कर,
चुप हो जाता है॥
निराशा को करते हैं ,
ढंकने कि कोशिश,
और मुस्कराते हैं, सब,
एक दूसरे को देख कर,
खाने कि टेबल पर॥
देखते हैं आसरों कि उम्मीद ,
इधर-उधर॥
भगवन से भी करना चाहते हैं,
बात इस बारे मे,
कि क्या हमे जमा करने होंगे,
कुछ शब्द लिखने के लिए वैसा,
जैसा चल रहा है,
या वो बस करने ही वाला है,
सब कुछ वैसा ,
जैसा लिखने के लिए हमने,
जमा कर रखे हैं ,
कई-२ शब्द कोष !!
Sunday, April 5, 2009
अन्तिम यात्रा का सुख !
क्रम ताल मे आते हुए.... लीजिए मेरे चल रहे प्रयास का अगला सूत्र....
क्रम- मेरे मरने के बाद ॥
उनमान है, अन्तिम यात्रा का सुख !
सत्य स्वरूपी, मृत्यु जब,
महबूबा मेरी होगी,
क्या खूब घड़ी वह होगी !!
क्या खूब घड़ी वह होगी-
जब शयन करेगी काया,
घास-फूस के बिस्तर पर,
जो मखमल से नाज़ुक होगी॥
क्या खूब घड़ी वह होगी....
तान वितान चिर-निद्रा होगी,
आँख बंद जब होगी,
कंधा दे-२ लोग चलेंगे,
ऊँचे-नीचे पथ पर आगे,
मैं लेटा-२ झूलूँगा जब,
शान्ति संगिनी होगी॥
मुंह ढांके मैं श्वेत वसन से,
श्वांस स्वयं की लूँगा थाम,
ठंडे दिल को मौन देख कर,
तकलीफ किसी को न होगी॥
क्या खूब घड़ी वह होगी...
सत्य स्वरूपी मृत्यु जब,
महबूबा मेरी होगी॥
कस कर बाँध रखेंगे देह,
किंचित तकलीफ मुझे न होगी।
मौन साध कर दुनिया से जब,
देह जुदाई लेगी,
क्या खूब घड़ी वह होगी ,
सत्य स्वरूपी मृत्यु जब,
महबूबा मेरी होगी॥
Monday, March 23, 2009
फूल की कहानी, जो मैंने सुनी उसने कही।
आप भी वजह फरमाएं -
शूल नहीं चुभता तुमको,
गर फूल नहीं तोडा जाता॥
और फूल एक न बचता,
गर शूल से मौका छोड़ा जाता॥
कितने हैं बदमाश सरल,
जो बात बताते हैं पूजा की,
पर मन में होता भावः विनय का,
एक फूल न तुमसे तोडा जाता॥
ये बात अलग है,
फूल स्वयं लालायित था,
प्रभु चरणों मे आने की खातिर,
तब ही तो वो शूल (सुई) सहारे ,
धागे मैं गुथ माला बन जाता॥
पर छल के पर्याय देखिये,
अपनी-अपनी श्रद्धा कह कर,
कितने फूलों को तोडा जाता॥
फूल मृदु का कहिये संयम,
जो मौन समर्पण करता जाता॥
पर शूल, साधू sam सरल जताता,
ग़लती का एहसास कराता ,
कहता माली मत बन कातिल,
प्रभु नही रखते मृत की आशा॥
और जो तू चाहे, करना गर अर्पण,
क्यूँ नहीं, नव जीवन रोपे,
एक पौधे मे फूल ugaata॥
Friday, March 13, 2009
मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥
मैं सोच ही रहा था ,
कि तुम अपलक,
अप्रतिम, अभिनव,
खड़ी हो, मुझे निहारती।
मैंने भींचे हैं तेरे हाथ,
और भर दिया है,
तुम्हारी- मेरी अंगुलिओं के,
बीच का खली पड़ा अन्तराल॥
मैं सोच ही रहा था...
कि, तुम झुक आई हो,
मेरे जीवन के आंगन मे,
जैसे झुक आया हो आम, बौरों से॥
खड़ी हो अपनी जगह,
पसारती अपनी,
व्यापक छांह॥ दूर तलक,
मैं सोच ही रहा था...
कि हम अब रिक्त नही रहे,
भर दिया है दोनों को,
दोनों की रिक्तता ने॥
हम हो गए हैं परिपूर्ण॥
मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥
Sunday, March 8, 2009
होली की ठिठोली !!
होली की ठिठोली !!
जब मैंने अपने प्रिय के ,
कोमल कपोलों पर गुलाल लगाया।
तो उसका चेहरा गुस्से से,
तमतमाया!!!
उसने पलट कर मुझे एक चांटा लगाया॥
मेरे चेहरे पर लग गई,
उनकी उँगलियों की लाली।
उसने दी गाली,
तो भी हमने बात सम्हाली॥
हमने कहा प्रिय ! तुम ठीक किए,
मैं समझ गया बात तुम्हारी,
तेरे हाथ थे रंगों से खाली ,
इसीलिए तुमने इस तरह ,
मुझे गुलाल लगा ली॥
पर उसकी थी सौगात और भी निराली,
अचरज पैदा करने वाली,
बोली !! पानी की है बदहाली,
जिस वजह से मैने ,
तुम्हे रंगने की,
ये तरकीब निकाली....
होली है !!!
अतुकांत कविता के लिए,
Sunday, January 11, 2009
सुख और सुख के बीच अन्तर
मित्रो! नव वर्ष की शुभ कामनाओं के साथ इस वर्ष का आगाज़ मेरी आज ही जन्मी इस बिटिया से,
मेरी नई कविता से ......
उन्मान है, सुख और सुख के बीच अन्तर।
क्या है आख़िर ?
सुख और सुख के बीच अन्तर!
मैं निकला हूँ अभी-२
नहा कर गुनगुने पानी से,
कडाके की सर्दी मे ,
सुखद है अनुभूति,
वो नहा रहा है,
ठिठुरे हुए पानी मे,मसोस कर मन!
मैं किराये के एक कमरे मे कर रहा हूँ,
शान्ति से बसर।
उसके पास है है, बहु मंजिला घर ख़ुद का,
पर कहता है - कुछ है जो,
रहने नही देता।
सुख को भी सुख,
होकर भी सुख होता नही हैं॥
मेरे पास जमा के नाम पर है फूटी कोंडी,
और वो रखता है ,
रुपया कोणि-२॥
चिंता बहुत है,उसे ,
इस सुख से वंचित न हो जाऊँ ॥
मैं बड़ा निर्विकल्प सुखी हूँ,
इस तरह की चिंता वाले सुख से॥
मेरी नौकरी है,खतरे मे,
और करने पड़ सकते हैं फांके,
गुजारना होगा समय,
नमक ,प्याज़, रोटी से,
सुख मानना होगा उसी उपलब्ध में॥
वो दिन भर करता है काम,
और कमा कर ला ही पाता है,
uतना सुख , जितना मैं सब
खो jane के bad bachaa paunga ,
शायद...
मन आदी है, उस सुख का,
jisko सुख kahne के lie,
asuvidha से hataa dia है अ",
मन behad bichlit है,
kyunki वो समझ नही pa रहा,
दो muhen tark!!
और असफल है करने me,
अन्तर- सुख और सुख के बीच॥