एक मित्र जो ज़ुरूरत को समझे बगैर, या ज़ुरूरत की ज़ुरूरत को भुला कर चला गया, मैंने उस के व्यव्हार को अपने शब्द दिए, पता नही कितने सटीक हैं-
तुम चले गए,
बिना बुने खाट,
रोका था तुम्हें, कि
रुक कर बुनवाना
चारपाई॥
मगर तुम डरते थे,
शायद,खिंचते हुए,
सूत से,
तुम्हे तनाव मे,
व्यग्रता लगती है॥
और इसी लिए शायद,
तुमने भुला दिया
मुझे ही, कि
बुनना है चारपाई॥
ज़ुरूरी था मेरी
पीठ के लिए,
मेरे आधार के लिए॥
शायद !!!!!
तुम इस लिए भी
डर -सहम रहे थे
की खींचते मे,
टूट न जाए पुरानी
पड़ चुकी रस्सियाँ,
मगर तुम तोड़ते तो......
बहुत कुछ
बिगड़ थोड़े जाता,
गाँठ ही पड़ जाती
मगर कम से कम-२
इन सब तनाव, खिचाव
और गाँठों के रहते,
बुनी तो जाती
चारपाई॥
मुझे आधार तो
मिल सकता था॥
7 comments:
सुंदर भाव व्यक्त करती सुंदर कविता..
धन्यवाद ..कविता अच्छी लगी
इन सब तनाव, खिचाव
और गाँठों के रहते,
बुनी तो जाती
चारपाई॥
मुझे आधार तो
मिल सकता था॥
अद्भुत लिखा राकेश....! सच में अद्भुत....!
मगर तुम डरते थे,
शायद,खिंचते हुए,
सूत से,
तुम्हे तनाव मे,
व्यग्रता लगती है॥
कहाँ की बात कहाँ से जोड़ी है आपने..चारपाई के बहाने सुंदर लक्षणा का प्रयोग.
मुझे आधार तो
मिल सकता था॥
आधार को तलाशती भावपूर्ण कविता
bahut hi bhavpoorna..........ati sundar.
aadhar to apki hauslafzai se bhi milta hai...ye rassiyan bune rakhiye..
सुंदर!
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