Friday, March 13, 2009

मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥

लीजिए थोड़ा रूमानी हो लीजिए॥

मैं सोच ही रहा था ,
कि तुम अपलक,
अप्रतिम, अभिनव,
खड़ी हो, मुझे निहारती।
मैंने भींचे हैं तेरे हाथ,
और भर दिया है,
तुम्हारी- मेरी अंगुलिओं के,
बीच का खली पड़ा अन्तराल॥
मैं सोच ही रहा था...
कि, तुम झुक आई हो,
मेरे जीवन के आंगन मे,
जैसे झुक आया हो आम, बौरों से॥
खड़ी हो अपनी जगह,
पसारती अपनी,
व्यापक छांह॥ दूर तलक,
मैं सोच ही रहा था...
कि हम अब रिक्त नही रहे,
भर दिया है दोनों को,
दोनों की रिक्तता ने॥
हम हो गए हैं परिपूर्ण॥
मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥

5 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

आजकल इतना सोचने का मौक़ा कहाँ पाते हैं लोग! आपने सोचा, इसके लिए बधाई के पात्र हैं.

Satish Chandra Satyarthi said...

बहुत ही भावपूर्ण कविता !!

संगीता पुरी said...

मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥

बहुत सुंदर..

कंचन सिंह चौहान said...

ishwar tumhari soch ki satya pariniti karen...!

राकेश जैन said...

hauslaafzai ka bahut shukria, main bhi ishwar se prarthneey hun ki ye sambal bana rahe!!