दो विचार केंद्रित कवितायें,
१) चक्रब्यूह मे फंसा एक और अभिमन्यु!!
चक्रब्यूह कई!
कई अभिमन्यु,
कई-२ कौरव//
मैं भी हूँ......
एन कई चक्रब्युहों मे से
किसी एक मे फंसा,
अर्धशिक्षित,
अभिमन्यु॥
घुस तो गया हूँ,
पर तोड़ रहा है,चक्रब्यूह,
मुझे.....!!
वैसे ही जैसे की छल के कौरवों ने,
सम्पन्न कर दिया था,
एक वीर अभिमन्यु!!
पाप भी सक्षम है,
जीतने में,
दुनिया की किताब कहती है॥
कहता है चित्र-
विचित्र बड़ा है,
न्याय और अन्याय
के बीच तालमेल॥
कौरवों का तंत्र
खुश है,आज भी,
तैयार है बलि, उसके लिए।
चक्रब्यूह मे फंसा एक और अभिमन्यु!!
२) माना तुम हो बुद्धिजीवी,
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो!
माना तुम हो बुद्धिजीवी,
पर तुम ,
शलभ तो नही!
होते जो तुम तो,
कहते न प्रेम की
अनुभूति को,
लिप्सा की गंदगी!!
वरन होते ख़ुद रत!
रोते लिपट-२ ,
खोते तुम प्राणों को,
ज्योति मे सिमट-२,
अंधेरे मे घुट कर जीने से,
लगता ये अंदाज़ भला।
उजारे के आलिंगन मे,
मौत का रूप उजला-२!
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो!!
3 comments:
dono hi rachnayein lajawaab hain.
शलभ वाली कविता बहुत बहुत सुंदर है राकेश...! यूँ ही लिखते रहो...!
Vandna ji , bahut shukriya, Di apka ashirwad hi hai...
Post a Comment