Wednesday, July 16, 2008

"गुनाहों का देवता" पढ़ने के बाद मेरी मनोदशा..


पिछले दिनों की एक बात आप से बिना कही रह गई थी, आज ये एहसास के मोती धागे मे पिरो लेते हैं, सुंदर कंठइका ( kanthika) बन पड़ेगी।

कंचन दी, का मन था की मैं "गुनाहों का देवता" पढूं , मुझे उपन्यास बहुत ज़्यादा नही भाते फिर भी दी ने अगर कुछ बोला है तो वो प्रासंगिक तो होगा, हमने उनसे ही कहा आप पढ़वा दो, बस फ़िर क्या था, हुई इस बात की जोड़-तोड़ की लखनऊ से उपन्यास हम तक कैसे पहुंचे, पर उनकी जिज्ञासा ही अनुपम होती है, हमारे एक सहकर्मी का लखनऊ जाना इसी बीच बन पड़ा, इसके पीछे भी कहानी बहुत रोचक है की कैसे हमारे और दी के बीच का यह अंतराल कृष्ण उद्धव और गोपियों के प्रसंग की तरह रोचक रहा, जब तक की यह पुस्तक दी (कृष्ण ) से उद्धव ( राजेंद्र राठोड) के द्वारा गोपी (मैं) तक नही पहुँच गई॥
दी ने जो लिखा मेरे लिए इस पुस्तक पर ,वो मैं अलग से ही किसी दिन एक पूरी post के तहत आप से आप से कहूँगा।


इस उपन्यास के बारे मे शायद ही कोई न जानता हो, क्यूंकि इस की उपस्थिति हिन्दी साहित्य जगत मैं अग्रणी रही है, और लेखक के विषय मे भी यही बात लागू होती है। बुद्धि

साधारण बुद्धि वाला मैं, इतनी उत्कृष्ट कृति को जब पढने बैठा तो इस हद तक रूचि जागी की एक दिन office से हाफ डे लेकर आ गया । या यूँ कहें, कि चंदर और सुधा , दोपहर की छुट्टी तक पहुँच गए अपनी मोटर से और बोले भइया चलो, ये कहानी आगे पढ़ दो हमे बेहद तकलीफ हो रही है, पुस्तक के अन्दर॥

सुधा की विदा करा के तो हम office ही गए थे, पर हमे नही पता था कि जो हाफ डे हम ले रहे हैं वो सुधा के महा प्रयाण के लिए है॥ मन तीन दिन तक बेहद भारी रहा, जैसे तैसे हम इस उपन्यास के अन्य किरदारों , बिनती और पम्मी के सहारे बाहर निकले जो "जिंदगी और भी है" की तर्ज़ पर हमे अपनी रोज़ मर्रा की जिंदगी मे छोड़ कर पुस्तक मे छुप गए। पर आज कल रात को नींद टूट जाती है, और गेशु कहती है, समर्पण मे सम्यक खुशी है, ...

बुआ आकर कहती है, में भी इसी समाज का सच हूँ, और डॉ शुक्ल जैसा चरित्र भी आ कर पिता कि तरह विशाल हृदयता से सहला के चला जाता है, सुधा बिनती की मांग मे भरी-२ मुस्कुरा देती है, चंदर उसकी बात का कितना मान रखता है। आज कल जब चाय पीता हूँ तो सुधा kई चंदर को दी हुई चाय का ध्यान आ जाता है।

इन सब बातो के मन मे परिभ्रमण और पुस्तक के अंतर संकलन से मेरे मन मे कुछ कवितायेँ बनी, शायद चंदर,सुधा, पम्मी और गेशु मुझसे इस बात कि शिकायत नहीं करेंगे कि मैंने उनको पढने में कहीं भूल की। में कृतग्य हूँ उस महान लेखक के प्रति जिसने इतनी सशक्त कहानी लिखी कि उस कहानी का एक चरित्र हो जाने का दिल करता है।

में कोटिशः नमन करता हूँ कंचन दी को, जिन्होंने मुझे संवेदनाओं के सागर मे डुबकी लगाने का अनुपम सानिध्य संयोग जुटा कर दिया ।

१)

विवश था !

वक्त से।

था तो, मजबूत वो,

पर वक्त,

उसके हिस्से का,

मजबूती से,

कमज़ोर था॥

२)

रात, कारी सलों मे,

पसरी हुई है।

वो ढूढती है,

दिया सलाई॥

ताकि कर सके,

छेद , तम् की इस,

चादर मे॥

दिखने लगे दूर तलक,

तम् के कुआरे पन मे,

चरित्र हीनता का दोष॥

३)

शलभ की विपदा को,

लिप्सा तो न कहो॥

माना तुम हो, बुद्धि जीवी,

पर तुम, शलभ तो नहीं॥

होते जो तुम तो,

कहते न प्रेम की ,

अनुभूति को लिप्सा,

की गंदगी॥

वरन होते, खुद रात,

रोते- लिपट-लिपट।

खोते तुम प्राणों को,

ज्योति में सिमट-२॥

अँधेरे मे घुट कर जीने से,

लगता ये अंदाज़ भला,

उजारे के आलिंगन मे,

मौत का रूप उजला-२।

शलभ की विपदा को,

लिप्सा तो न कहो !!!!!!

8 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अरे तुम तो अपने एमपी वारे हो भज्जा! तुमाई उमर हमें मालूम नई हे नई तो जे केह देते की किशोर वय में जा उपन्यास जीने पढ़ लओ, वो गवो काम सें. खेर खुसी की बात जा हे के तिमने पढ़ाई तो सुरू कर दई. आगे बढ़बे को जा सबसे सही माध्यम हे भज्जा!
अब उनईं भारती जी को लिखो जे उपन्यास पढ़ो. पढ़तईं बड़े हो जाओगे- नाम हे- 'सूरज का सातवाँ घोड़ा'. ईपे हो एक फिलम भी बनी हती येइ नाम सें. बेनेगल साब ने बनाईती.

कवितायें भी तुमाई साजी हें. एसई लिखत रहो.

तुमाये भैया
जे राम जू की!

Udan Tashtari said...

विजय भाइ सब कह गये, अब हम क्या कहें?

कवितायें बहुत पसंद आई-लिखते रहिये नियमित. शुभकामनाऐं.

शोभा said...

यह उपन्यास मैने भी पढ़ा और कई बार पढ़ा। हर बार दिल भारी हो जाता है। फिर भी इसको पढ़ने से मन नहीं भरता। धर्मवीर भारती जी की लेखनी ने कमाल किया है। आपने अपनी अनुभूति को कविता में सुन्दर रूप में व्यक्त किया है।

rakhshanda said...

सब से पहले शुक्रिया कह दूँ , आप मेरे ब्लॉग पर आए...महमानों को वेल्कम तो कहना चाहिए ना...
अब आपकी कविता की, पहली बार पढ़ी, और बहुत अच्छी लगी,बहुत अच्छा लिखा है अपने, बस लिखते रहें....

कंचन सिंह चौहान said...

पहले तुम्हे डाँटना है सीरियस्ली, कि तुम्हारे ब्लॉग पर कंचन दी की कुछ अधिक प्रशंसा होती है.... ये ब्लॉग तुम्हारी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिये है, न कि व्यक्ति विशेष की सराहना के लिये,

जिस प्रकार के प्राणी हो तुम, उससे मुझे ये तो पता था कि उपन्यास तुम्हे बहुत अच्छा लगेगा, लेकिन ये उम्मीद नही थी कि मैं तुम्हे अवसाद में डाल दूँगी... वैसे मैं खुद भी इस उपन्यास के पात्रों से जल्दी नही निकल पाई थी।

लेकिन एक बात तो ये माननी पड़ेगी तुम्हे, कि तुम्हारी जनरेशन चन्दर को नही समझ पाती, वो नही समझ पाती कि जब सब कुछ पज़िटिव था, तो क्यों नही चन्दर ने सुधा का हाथ माँग लिया ? वो नही समझ पाती कि ऐसा भी प्रेम होता है जो पराकाष्ठा पर भी हो लेकिन उसमें विवाह जैसी कोई भावना ऐसी लगे जैसे उसे दूषित किया जा रहा हो। तुम राधा कृष्ण की बात लो, जो कृष्ण बड़े बड़े राजा महाराजाओं की कन्याओं के आमंत्रण पर उन्हें उनके राज्य से उड़ा ले जाते हों, उनके लिये राधा जैसी गोपी को ले जाना कौन बड़ी बात थी, लेकिन वहाँ प्रेम चाहे जितना था, परिणिति विवाह नही थी...! समझना इसे..!

लोग कहते हैं कि ये नॉवेल किशोरों के लिये है, मैने ये २८ साल की उम्र में पढ़ी और अब जब तुम्हे देना हुआ तो फिर से ३२ साल की उम्र में पढ़ी, मुझे इसने फिर वैसे ही बाँधा, शायद मैं अपनी किशोरावस्था से बाहर नही आ पाई हूँ।

विवश था!
वक्त से।
था तो मजबूत वो,
पर वक्तउसके हिस्से का,
मजबूती से कमज़ोर था॥
बहुत खूब..कविताएं तीनो ही अच्छी बन पड़ी हैं

और तुम्हे डाँटना है सीरियस्ली, कि तुम्हारे ब्लॉग पर कंचन दी की कुछ अधिक प्रशंसा होती है.... ये ब्लॉग तुम्हारी साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिये है, न कि व्यक्ति विशेष की सराहना के लिये...! !

राकेश जैन said...

krimshah Vijay ji sarv pratham apko shukriya, aapne mujhe padha, main koshish karunga ki apka bataya hua upanyas bhi padhu, kishor to ab nahi raha par abhi shayad jawan bhi nahi ??? apki bhasha ki mithas se laga koi apna mil gaya,
Sameer g apke lie bhi sa hriday dhanyabad aap mujhe bahut hausla dete hain.
shobha g prathamtaya aapse koi tippdi mili bahut achha laga.

Rakshanda Ji, aap ne shyad gaur nahik kiya main apke blogko kafi pahle se padhta hun aur comments bhi niyamit karta hun, aap ki lekhni me adbhut aakarshan hai, aap jis bhi vishay ko chhute hain wo jee uthta hai.
sneh ke lie shukriya.

Di, aap chahe danto chahe maro,
hum to bhai jaise hain vaise hi rahenge...

Na ye blog tha, na ye sahityik abhivyaktiyan, tab bhi aap ka sneh tha , usko kabhi-2 kah deta hun to koun harza hai ???
aap sada jaywant rahen !!!

Manish Kumar said...

ये किताब चार साल पहले पढ़ी थी इसके बारे में यहाँ लिखा था
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/08/blog-post_23.html
और ऍसी ही मनोदशा मेरी या बाकी पढ़ने वालों की मुझे आज भी मिलती रही है।
बड़े अलग अलग तरह के विचार इस उपन्यास के पात्रों के बारे लोग देते हैं। दरअसल उपन्यास की ताकत आपको तटस्थ रहने नहीं दे पाती। कई लोग सुधा के लिए दुखी होते हैं तो कोई चंदर को गुनाहगार मानते हैं या फिर कुछ तो दोनों के चरित्र को आज के पैमाने से कमजोर साबित कर देते हैं।
कविताएँ अच्छी लगीं , पात्रों के चरित्र को अपनी तरफ से आपने समझने की अच्छी कोशिश की है।

Anonymous said...

Ek bar padha h bar bar padhne ki chaht h. is jaisa novel lagta na kabhi padha h orna kabhi jindagi me padh paunga. aajkal kuch bhi acha nahi lagta h kewal ankhon k samne chander or sudha ki dhundhali si parchai aakar khadi ho jati h jisko bhula k bhi nahi mita pata hu.