Monday, June 30, 2008

मेरे मरने के बाद-८ (" समाज और रस्म")

मेरे मरने के बाद,
लीजिये मेरे विचारों की गंगोत्री का और एक अंजुली जल,
" समाज और रस्म"

किसी की पगडी रस्म होगी,


किसी की जायदाद,


कोई सच्चे आलापों मे,


कोई झूठे आंसुओं मे,


कोई उदाहरणों में,


मुझे खोजता रहेगा॥


वसीयत के कागजों पर,


दस्तखत का कालम,


खाली तो नही!!


असली जद्दोजहद,


तुम्हारे लिए ,


यही एक होगी॥


( कृमशः )


Friday, June 27, 2008

मेरे मरने के बाद-७ ("यथाक्रम-यथावत")

प्रिय जनों !

मरना तो शाश्वत सत्य है, पर हमारी कुछ अवधारणाएं, कर्म पुंज बन कर हमारे साथ चलती हैं।

मेरे मरने के बाद विषय के अंतर्गत जो मैं लिख रहा हूँ वो कितना पसंद किया जाएगा, मेरे लिए महत्वपूर्ण तो है, किंतु इस बात से अधिक श्रेयष्कर नहीं की यह विषय पाठकों द्वारा कितना समझा जाएगा॥

लीजिये, लुत्फ़ उठाइए मेरे एक और विचार का,

"यथाक्रम-यथावत"

सूरज सो कर उठेगा,

लालिमा आँखों मे लिए,

लाल-लाल॥

चन्द्रमा भी,

शीतला का,

लिए तिलक भाल,

अपना क्रम रख,

कदम ताल॥

तारे मगर अनंत हैं,

उन अन्तानंत मे,

एक और तारा होगा॥

आदमी की दुनिया मे,

रिक्ति, थोडी हो,

या बहुत,

आसमान के भाल पर,

नया एक तारा होगा॥

कृमशः)

Wednesday, June 25, 2008

मेरे मरने के बाद -६ (दुनियादारी॥)

मैं एक दिन लेट हो गया इस क्रम ताल मे, क्षमा चाहूँगा ,
लीजिये पेश है अगली कविता ,

दुनियादारी
तुम चार दिन रो कर ,
चुप बैठ जाओगी॥
अगर में आज ही मरा,
तो तुम पहाड़ सी उम्र देख,
दूसरा विवाह रच लोगी॥
में अगर एक नन्हा सा ,
आसरा दे कर मरा, तो
तुम उसमे मुझे देख,
जिंदगी के तार-२ बदन को,
फिर से जोड़ने का प्रयास करोगी॥
में अगर ४० के पार मरा, तो
मेरे ऑफिस से मिले रुपयों की,
जोड़-तोड़ कर,
अपने आंसू सुखा लोगी॥
और अगर बूढा मरा, तो
अपने नाती-पोतों से,
दिल बहला लोगी॥
(कृमशः)

Saturday, June 21, 2008

मेरे मरने के बाद -५ (" मेरा मोह- तुम")

मेरे मरने के बाद॥

दोस्तों, प्यार का एहसास मानव के जीवन पथ मे एक नई जीवन गाथा लिखता है, पर ये भी एक मोह पाश ही है,

एसी ही मेरी काल्पनिक प्रेयसी जो नही है अब, थी क्या ?? ये मत पूछिये, प्रासंगिक नही है॥

मेरे मोह की गाथा सुनिए, लीजिए पेश है पांचवा पायदान ,

" मेरा मोह- तुम"

तुम न हो कर,

मेरी जिंदगी को,

करती हो वीरान,

मरघट॥

और यादों मे,

आ- आ कर,

करती हो,

कपाल क्रिया॥

तुम आज,

दूसरो की दुनिया ,

हो कर मुझे,

जलाती हो॥

और मेरी ही,

मजबूरियों की

अश्रु गंगा मे,

मुझे बहाती हो॥

सब कुछ ,

कर दिया, करती हो,

क्या ? अलग होगा,

मेरे

मरने के बाद॥

(कृमशः )

Thursday, June 19, 2008

मेरे मरने के बाद,-४ ("दाह संस्कार")




लीजिए पेश है एक और कविता,


"दाह संस्कार"


मिटटी, मिटटी हो जायेगी,


चेतन पंछी होते ही॥


आग लगेगी उस कोठी मे,


जिस मे चेतन रहता था॥


अचेतन के इसे होंगे हालात,


घर मे रखने से इंकार॥


खो जाएगा, और फ़ना हो जाएगा,


निज जन, निज मन का प्यार॥


(कृमशः)




Tuesday, June 17, 2008

मेरे मरने के बाद, -३ ("अन्तिम यात्रा ")

मेरे मरने के बाद,

क्रम को और आगे बढाते हुए लीजिए पेश है मेरी इस श्रृंख्ला कि एक और रचना,

"अन्तिम यात्रा "

जाने कांधे किसके होंगे,

मेरी मिटटी कि अर्थी में,

जाने कौन जलाएगा,

मेरा झूठापन ,

आग लगा कर अर्थी में,

कौन कपाल क्रिया करेगा,

कौन लगायेगा फेरे॥

मैं तो बीत चुकूंगा तभ तक ,

फिर साथ रहा क्या, इस जग का मेरे॥

व्यवसाय यही था जीवन जब था,

संबंधों मे भेद पाटना ,

कहना कुछ को बहुत पराया,

कुछ को जतलाना ये मेरे॥

आँख मूंदने पर सब आए,

जो थे बहुत पराये कल तक,

या जिनको कहता था अपने- मेरे॥

भेद दृष्टि का ,

लेकर जाना नही भलाई मेरे साथी,

तुम मुक्तिपथ मे मुझे छोड़ कर,

क्षमा ह्रदय से करते जाना ,

निर्विकल्प मे विदा ले सकूं,

जीवन का न हो फिर दोहराना॥

(कृमशः)

और भी बहुत कुछ मेरे सोचे अनुरूप लिखूंगा अगला पायदान है "दाह संस्कार" ।

Sunday, June 15, 2008

मेरे मरने के बाद,-२ ("मानवता ")

मेरे मरने के बाद,

प्रिय जनों ! श्रृंख्ला को आगे बढाते हुए आपके लिए एक नव कविता प्रेषित कर रहा हूँ, मेरी इस श्रृंख्ला के सच शायद आपने भी अपने चारों ओर देखे हों , दाबे के साथ नही कहूँगा , क्यूंकि मृत्यु से जुड़ी हुई घटनाओं को कौन कितने करीब से देखता ,ये कहा नही जा सकता ॥

चलिए मैं कोशिश करता हूँ ,आपसे कुछ कहने का,

उन्मान है ,

"मानवता "

पड़ोसी,

तंग हाल ,

कंजूस,

कैसा भी हो !

पर उसे,

हमारे सारे ,

रिश्ते दारों को ,

उसके ख़ुद के ,

फ़ोन से

ख़बर लगाना

कितना !

कष्टप्रद होगा ??!!

(कृमशः)

अगला पायदान है - अन्तिम यात्रा, जुरूर आइये मेरे ब्लॉग पर॥

मेरे मरने के बाद,-९ (कल का चलन ??)

मेरे मरने के बाद,

प्रिय पाठको !!

लीजिये एक और अनुभूति आपसे बांटता हूँ,

कल का चलन ??

आधुनिकता के उस दौर में,
शायद तुम मुंडन भी न कराओ॥
तीसरे दिन,
तुम व्यवसायी होने पर,
दुकान खोलने की जल्दी मे रहोगे॥
और नौकरी पेशा होने पर,
हाफ टाइम करने की कोशिश मे॥
जैसा भी हो,
देख लेना !
सुविधा से,
अस्थि विसर्जन॥

(कृमशः)

Thursday, June 12, 2008

"मेरे मरने के बाद "


दोस्तो ! अक्सर अपनी मृत्यु के बारे मे बात करने को अपशकुन कहा जाता है, पर मैं मानता हूँ ये जीवन उसी महोत्सव कि एक तैयारी है फिर इस पर सोचने, बात करने मे अपशकुन कैसा, ये तो हकीकत को समझने का एक प्रयास है... मैं अब आपसे कुछ ऐसी ही कवितायें कहूँगा जो मृत्यु के बाद के सच से जुड़ी है, हाँ ! मेरी मृत्यु और उससे जुड़े सच, कुछ कड़वे -कुछ मीठे सच,


आप सभी इसमे अपने लिए भी कुछ सच तलाश सकते हैं... वरना ये मेरा सच तो है ही ! साथ ही एक कयाश भी है कि क्या-२ हो सकता है -


"मेरे मरने के बाद

इस श्रंखला की पहली रचना,

(होगी नई शुरुआत आगे की )


सुई मे धागा पिरोने के बाद,


इंजन मे तेल पहुँचने के बाद,


बर्तन के तप चुकने के बाद,


क्या होता है ?


होगा वैसा ही कुछ,


मेरे बाद॥


क्यूंकि मैं पहुँच जाने का नाम नही हूँ,


क्यूंकि मैं रुक जाने का नाम नही हूँ ..


गतिवत हो जाना, गति पा लेना,


क्रम बदल जाए पर,


नियति पर हो ध्यान॥


ये ही है मेरा आगाज़,


मेरा अंदाज़,


सोचो क्या होगा ??


मेरा ! तेरा ! सबका !


कब ??


मेरे मर जाने के बाद ॥


होगा नव आगाज़॥


(कृमशः)





Sunday, June 8, 2008

आशा के दीप


तुमने ही तो आकर मुझ तक,

आशा के दीप जलाए थे,

मेरे जीवन मे आकर,

आशा के रंग सजाये थे ..

मैं तो रह लेता था ,

अंधरे कमरे मे घुट कर,

तुम ही हाथ पकड़ कर एक दिन,

मुझको बाहर लाये थे॥

तुमने ही तो आ कर मुझ तक,

आशा के दीप जलाये थे॥

मैंने तो रोका था तुमको,

अपने घर के बाहर ही,

पर आकर अन्दर तुमने ही,

सुंदर गीत सजाये थे॥

तुमने ही तो आ कर मुझ तक ,

आशा के दीप जलाए थे॥


मैं तो रो लेता था,

अपने घुटनों पर सर रख के,

पहली बार यहाँ आकर,तुमने ही!

अश्को पर प्रतिबन्ध लगाये थे,

तुमने ही तो आ कर मुझ तक,

आशा के दीप जलाये थे॥









Sunday, June 1, 2008

मेरा जन्म दिन -29th may (diary के पन्नों से)

इसे मेरी diary का एक अंश समझिए, यूं तो मैं अक्सर आप सभी को अपनी कविता ही सुनाता हूँ, पर कुछ मौके ऐसे आ जाते हैं जो बिना लाग लपेट के अपनों से बाँट लेने का मन करता है॥ आप मैं से सिर्फ़ कंचन दी हैं जो इस प्रविष्टि के लिखे जाने से पहले से जानती हैं कि २९ may को मेरा जन्म दिन आता है॥इस बार भी आया॥ मेरी ज़िंदगी के उपन्यास के २८ अंक पूरे पढ़ लिए गए॥ कुछ मे ३६५ पृष्ट रहे और किसी-२ अंक मे ३६६ भी थे ,उस अंक मे ज़िंदगी ने कुछ ज़्यादा कहने की कोशिश की होगी शायद॥
उन्तीस्वे अंक कि भूमिका मैं आपको सुना रहा हूँ॥ फ़ोन काल्स का सिलसिला २८ -२९ कि दर्म्यानी रात से ही शुरू हो गया जिसमे मेरी पूज्य कंचन दी का कॉल भी था। आपमें से कितने लोग उनसे जुड़े हैं नही पता पर उनके आशीर्वाद और दुआओं मे अलग ही एहसास है। वो जिन भावनाओं से कुछ कहती हैं,,वो तो बस महसूस ही किया जा सकता है॥
उनका अतुल स्नेह मेरी ज़िंदगी के 2८वे अंक के पन्नों मे लिखा जाना शुरू हुआ, और अब अन्तिम कड़ी तक यूं ही बना रहेगा.आप ये न समझिए कि यह कोई उपन्यासकार लिख रहा है॥ मैं तो इस उपन्यास का एक पात्र हूँ जो उपन्यासकार को मेज़ पर न देख अपने मन की कुछ कहने को पन्नों से बाहर निकल आया। मुझे यह भी नही पता कि कोई सुन भी रहा है या नही, क्यूंकि मैं कोई सदा हुआ कथाकार नही जो लिखता ही यूं है कि सब पढ़ने को लालायित रहते हैं॥
२९ कि सुबह को माँ को फ़ोन लगाता ,इससे पहले उनका फ़ोन आ गया, और इससे पहले मैं उनसे प्रणाम कहता उन्होंने खुश रहो कह दिया ॥इतनी तत्परता माँ के ह्रदय मे होती है बच्चों को दुआ देने की जिसकी कोई कल्पना नही है॥वो तो मुझे अप्रत्यक्ष हो कर भी सहलाती रहती है॥ वो बहुत अनुमति है, वो जब मेरे पास आती है इस बड़े शहर मे तो मुझसे पूछती है, इतने बड़े शहर मे तुम्हे कहाँ जाना है तुम भूलते नही हो? ???मैं हंस कर रह जाता हूँ, माँ को क्या कहूँ॥ कुछ भी नही होता इस प्रश्न का उत्तर मेरे पास॥

सुबह पहले मंदिर फिर Office पहुँचा सभी साथियों ने पुरी ऊर्जा के साथ दुआ दी। मगर एक दुआ ऐसी थी कि मुझे रोमांचित कर गई॥मेरे office मे बहुत सारे Helpers होते हैं , उनमे से एक रमेश भी है। रमेश ने जैसे ही सुना कि आज मेरा जन्म दिन है, वो आस पास पड़े बेकार कागजों से एक सुंदर फूल तरास कर मेरे पास बड़ा कम्प्ता हुआ आया, sir मेरी तरफ़ से ये तोहफा ले लीजिए॥उसकी ऑंखें भरी हुई थी, और मेरे रोम-२ मे सिहरन हो गई। मैंने उसे बांहों मे भर लिया॥इस जन्मदिन का सबसे खूबसूरत यही तोहफा था॥

अब शाम कि बात करते हैं जब office से लौटा तो कविता दरवाजे पर ही मिल गई, और फिर कहने लगी सबके लिए कुछ न कुछ पहले तो मैंने उसे रोका यह कह कर -
कि मुद्दतों से लिखी नही,मैंने कोई शायरी ॥
तुम आती नही हो कभी,बन कर कलम, स्याही या diary॥
लेकिन वो न रुकी और कहती गई --बस कहती गई॥
पहली कविता बनी सभी चाहने वालों के लिए-
दुआओं के इतने सिलसिले,
इतनी क्रम बद्धता,
इतना स्नेह,
इतना स्मरण,
मेरे पास है, अनंत शक्ति!
यह सकारात्मक लोग हैं, चारों तरफ़,
तो लगता है,बहुत कुछ है ज़िंदगी मे मेरी॥
कविता ने हाथ पकड़ा और मुझे छोड़ आई उनके गलियारे-हमने कहा-
तुम क्यों चहक- २ कर ,
उछल- कूद मे लगी हो ,सुबह से ही॥
क्यों कह रही हो ,सबसे
कुछ अच्छा खाने का मन हो रहा है आज॥
कहती हो !क्यों न घर मे ही बनाया जाए Cake।
लोग प्रश्नाचिह्नित हो कर झांक रहे हैं,
तुम्हारी आँखों मे,और देख रहे
हैं आज एक अजनबी रोमांच,
जो उनकी दुनिया के सलीके से हट कर है॥
मगर तुम मना रही हो,
मेरी-तुम्हारी खुशियाँ ,अपने ही सलीके से।
उस अपने सलीके से हटकर रहने वाले लोगों के बीच॥

और जब उसको खुश देखता हूँ कल्पनाओं मे भी तो फिर मैं क्या हो जाता हूँ ये भी सुनिए न!!
खुशबू दिख रही है,
चित्र महसूस हो रहे हैं,
एहसास पढे जाने लगे हैं॥
साँसे शब्द उगलने लगी है,
लग रहा है जो कभी नही लगा ॥
हो रहा है जो कभी नही हुआ,
इसके आगे लिखूं तो कलम कहने लगी,
हो गया वह जो होना चाहता है,
हो गई वो बात जो कहनी थी,
अब विश्रांति लेलो॥
अब विश्रांति लेलो ॥
बस इतना लिखा ही था कि अजय, मेरा बहुत करीबी मित्र आ गया , तभी मेरे सभी पड़ोसी भी जमा हो गए और हम सब बहुत देर तक कविताओं के दौर मे बैठे रहे, और फिर मेरी भांजी शानू, बहिन चंचल और अनुज सौरभ भी आ गए ॥ मीनू मेरी बहिन जो इंदौर मे ही Job मे है office कि तम-झाम नही निबटा पाई और नही पहुँच पाई ... हम लोग एक restaurant मे dinner लेकर एक दुसरे से विदा हो गए..मैं सोने से पहले सोचता रहा ..मैं कितना सौभाग्यावंत हूँ जो मेरे चारों तरफ़ इतनी सकारात्मक ऊर्जा का प्रबाह है॥ आँख कब लाग गई ,,ये तो उपन्यासकार ही बताएगा, दरवाज़ा खुलने कि आवाज़ हो रही है॥ मैं वापस २९ वे अंक के प्रष्ठ क्रमांक 03 मे वापस जा रहा हूँ....