Saturday, April 5, 2014

हे महासिंधु ! तेरी विनय में



प. पू. मुनि श्री क्षमा सागर जी के लिए 

(मुनिश्री की वाणी और प्रवचन इतने प्रभावशाली हैं कि वो जन मानस में नवचेतना का प्रसार करते हैं, विदित हो कि मुनिश्री के स्वास्थगत कारणो से उनके कंठ से वर्त्तमान में स्वर नहीं निकलता)

कंठ में उत्साह था तो 
बोल कर सब को बताया।
थक गया जो कंठ तो,
फिर नेत्रों ने बीड़ा उठाया।। 

वो समंदर है अतुल बल
भावना का अथक संबल।
तब बोल कर वो बांटता था
नज़रों से है वो अब लुटाता।।

शब्द शायद सोचते हों
फिर उन्हें चूमे अधर।
अंदर घुमड़ कर बादलों से
जाते होंगे अब वो सिमट।।

वो नेह का दीपक सलोना
उनको भी ढांढस बाँधता है।
उम्मीद से ख़ुद को संजो कर
जग को वो हिम्मत बाँटता है। .

मैं जब मिला और पूछा उनसे
क्या है मुझे अब तेरी आज्ञा।
"कुछ भी नहीं " में सर हिलाकर
आशीष को बस कर उठाता।।

हे महासिंधु ! तेरी विनय में
गीत लिख पाता नहीं हूँ।
तुम मौन रहकर बोलते हो
मैं बोलकर कह पाता नहीं हूँ।।

1 comment:

Mithilesh dubey said...

बहुत खूबसूरत।