एक कविता अचानक ही फूटी, पता नही कहाँ से, पर सच के करीब लगी, गौर करियेगा,
एक पीर अपनी दरगाह से
बाहर निकला तो पाया
सामने दरगाह के,
मन्दिर है एक बड़ा॥
चल कर पहुँचा वहाँ,
पर नही मिला कोई देवता,
सुनाई दी आती हुई पास से,
कुछ आवाजें , अट्टहास,
और ठहाके॥
आगे बढा तो मन्दिर की,
दीवार से ही लगा था ,
एक गिरजा,,
जहाँ पर क्राइस्ट के साथ
बैठा हुआ था देवता॥
पीर को देखते ही उसने कहा,
आइएगा भाई सा ,
कैसे निकलना हुआ!
पीर कहने लगा,
आज गुरूद्वारे पर भीड़ थी,
सोचा वो मित्र तो आने से रहा,
इस तरफ़ को रुख किया,
तो मन्दिर बड़ा सा दिख पडा॥
क्राइस्ट ने इस पर कहा,
अच्छा बहुत तब ये हुआ,
इस बहाने मिल लिया,
बरना ये आदम जात ने,
बांटा हमे है इस कदर,
की इनकी जिदों के वास्ते,
तू है खुदा,ये देवता,
मैं GOd हूँ ,और वो,
वाहे गुरु हो रह गया॥
8 comments:
बेहतरीन!!
आगे बड़ा तो मन्दिर की,
को
आगे बढ़ा तो मन्दिर की,
कर लिजिये.
बहुत खूब, राकेश जी । बहुत से अर्थो को संजोया लाजवाब रचना । बधाई
Nice one Rakesh.....!
good writing on religious integration
bahut gahre utakar likha hai.........sach aaj insaan ne hi to baant diya hai us param shakti ko bhi aur na jaane apne fayade ke liye kab tak bantata rahega.
Thanx to all!
Sameer Ji, ke sujhav ko murt rup de dia hai,
Mithilesh ji bahut shkria, apne mujhe samjha.
Di hausla badhaate rahen,
Niranjan sir, I am pleased to have ur comment.
Vandana ji, main apse sahmat hun..
regards
RAKESH JI ... SAMAJHNE WAALI KAVITA HAI ... AGAR SAMAJH SAKE INSAAN ... BAHUT ACHEE RACHNA ..
वाहवा...... सुंदर रचना
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