TELE कम्युनिकेशन के युग मे ख़त इत्तेफाक हो गए हैं, अब तो मोबाइल, बैंक खाते के ब्यौरे और कई ज़ुरूरी कागज़ भी इ-मेल के जरिये ही आया करते हैं.. पहले कुछ और ही मज़ा था , ऐसा कहते हैं, मगर मुझे लगता है, की अभी भी पोस्ट ओफ्फिसस और कुरिएर का अहम् स्थान है, ख़त लिखने का अलग रुतबा है, उसका इंतज़ार करने का अपना रंग है, और बल्ब की रौशनी मे लिफाफा देख कर फाड़ने का अभी भी मन मे ख्याल आता है, ख्याल आता है की अन्दर प्रेषित भावनाए क्षति न हो जाए॥ ख़त खोलने का अपना सलीका होता है, उसे पढ़ने से पहले उलट पलट के देखने का अपना नजरिया होता है... क्या होता है जब आता है बहुप्रीतिक्षित एक ख़त अपनी प्रेयषी का ???
एक कागज़,
कागज़ नही रहा,
हो गया है वोः,
एक हवाई जहाज़॥
शीश महल और,
अंतरिक्ष का एक,
महत्त्वपरक हिस्सा,
तुमने लिख दिये हैं उसमे,
अपनी ज़िन्दगी के,
कुछ पल,
अब मैं बिताना चाहता हूँ,
कुछ समय,
उसे देख कर।
बनाना चाहता हूँ ,
अपनी जिंदगी के कुछ क्षण,
बेशकीमती॥
घर मे खाली पडी है,
एक दीवार,
बहुप्रीतिक्षित॥
सजा देना चाहता हूँ- उसे,
एक सुंदर भावनाओं से
भरे चित्र से ,
सिरहाने रखना चाहता हूँ
एक बाइबल जो,
एक बाइबल जो,
चिर निद्रा मे लीन होने तक,
मुझे थपथपाता रहे,
सहलाता रहे मेरे बाल ,
उम्र भर॥
5 comments:
बढ़िया प्रस्तुति।
sach khaton ka alag hi ahsaas hota hai.
sarahna ke lie dhanyabad...
बहुत सुंदर राकेश...! बहुत पवित्र...!
"Khuda, God, Devta ....
bahut hi sahi socha hai insaano ne apne swarth ke liye aur dharm ke naam par unko bhi nahi baksha....
"Khat" bhi bahut achha hai... kagaz par haatho se likhe kuch akshar hi dil ko chooo jaate hai .... na ki electronically sent short cut messages...
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