Monday, March 23, 2009


फूल की कहानी, जो मैंने सुनी उसने कही।

आप भी वजह फरमाएं -

शूल नहीं चुभता तुमको,

गर फूल नहीं तोडा जाता॥

और फूल एक न बचता,

गर शूल से मौका छोड़ा जाता॥

कितने हैं बदमाश सरल,

जो बात बताते हैं पूजा की,

पर मन में होता भावः विनय का,

एक फूल न तुमसे तोडा जाता॥

ये बात अलग है,

फूल स्वयं लालायित था,

प्रभु चरणों मे आने की खातिर,

तब ही तो वो शूल (सुई) सहारे ,

धागे मैं गुथ माला बन जाता॥

पर छल के पर्याय देखिये,

अपनी-अपनी श्रद्धा कह कर,

कितने फूलों को तोडा जाता॥

फूल मृदु का कहिये संयम,

जो मौन समर्पण करता जाता॥

पर शूल, साधू sam सरल जताता,

ग़लती का एहसास कराता ,

कहता माली मत बन कातिल,

प्रभु नही रखते मृत की आशा॥

और जो तू चाहे, करना गर अर्पण,

क्यूँ नहीं, नव जीवन रोपे,

एक पौधे मे फूल ugaata॥


Friday, March 13, 2009

मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥

लीजिए थोड़ा रूमानी हो लीजिए॥

मैं सोच ही रहा था ,
कि तुम अपलक,
अप्रतिम, अभिनव,
खड़ी हो, मुझे निहारती।
मैंने भींचे हैं तेरे हाथ,
और भर दिया है,
तुम्हारी- मेरी अंगुलिओं के,
बीच का खली पड़ा अन्तराल॥
मैं सोच ही रहा था...
कि, तुम झुक आई हो,
मेरे जीवन के आंगन मे,
जैसे झुक आया हो आम, बौरों से॥
खड़ी हो अपनी जगह,
पसारती अपनी,
व्यापक छांह॥ दूर तलक,
मैं सोच ही रहा था...
कि हम अब रिक्त नही रहे,
भर दिया है दोनों को,
दोनों की रिक्तता ने॥
हम हो गए हैं परिपूर्ण॥
मैं सोच ही रहा था,,,, बस॥

Sunday, March 8, 2009

होली की ठिठोली !!



होली की ठिठोली !!



जब मैंने अपने प्रिय के ,


कोमल कपोलों पर गुलाल लगाया।


तो उसका चेहरा गुस्से से,


तमतमाया!!!


उसने पलट कर मुझे एक चांटा लगाया॥


मेरे चेहरे पर लग गई,


उनकी उँगलियों की लाली।


उसने दी गाली,


तो भी हमने बात सम्हाली॥


हमने कहा प्रिय ! तुम ठीक किए,


मैं समझ गया बात तुम्हारी,


तेरे हाथ थे रंगों से खाली ,


इसीलिए तुमने इस तरह ,


मुझे गुलाल लगा ली॥


पर उसकी थी सौगात और भी निराली,


अचरज पैदा करने वाली,


बोली !! पानी की है बदहाली,


जिस वजह से मैने ,


तुम्हे रंगने की,


ये तरकीब निकाली....



होली है !!!



अतुकांत कविता के लिए,

मित्रो ! अफ़सोस होता है किमैं इस सतरंगी दुनिया से लगातार जुडा नही रह पाता, शायद आपका निरंतर स्नेह मेरे भाग्य कि किसी कमी के चलते अंतरालों मे विभक्त हो जाता है...

मैं आज एक कविता पर कविता कह रहा हूँ,
अतुकांत कविता के लिए,
कविता है, यह।
कितनी तुक है ,
जीवन मे,
अब ॥
फ़िर भी, सार तो है,
कुछ-कुछ।
कविता में भी,
रस है,
सार है,
पर तुक नही !!।
क्यूंकि, वह उपजी है,
सार भरे,
किंतु तुक से
परे,
अभाषों से ॥