Tuesday, November 11, 2008

बेकल मन और एकल मन

मित्रो!!!

अकेलापन जब मन को घेर लेता है तो कविता कैसे रिसती है, ज़रा गौर करिए मेरा अंदाजे बयां-



बेकल मन और एकल मन
कल-कल करता है किल्लोलें।
फ़िर होकर शांत दुबक जाता,
और ऑंखें भरती हैं डब्कोले॥
कह कर दुःख, चुप रह कर दुःख,
सुख की चाहत में क्या बोले।
सांझ लौट कर घर पहुंचे तो,
लगता है, दीवारें मुंह बोले॥
कोई पास नही, कोई आस नहीं,
कोई तो जीवन मे रस घोले।
मैं भाग रहा था,जाने कब से,
दुर्गम मंजिल तक बिन बोले॥

हर बार रूप वो धरती एसा,
मन रह जाता खा हिचकोले।
मन निराश, ज्यूँ मृत पड़ी आश,
कल-कल करता है किल्लोलें॥
बाधा क्या है, क्या पीर कहूँ,
विदित नियति से क्या बोलें।
हाथ खोल, रेखाएं तकते ,
क्या लिखा रखा है, कुछ बोलें॥

बेकल मन और एकल मन
कल-कल करता है किल्लोलें।




4 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत सही अभिव्यक्ति एकल मन की, बधाई.

कंचन सिंह चौहान said...

कह कर दुःख, चुप रह कर दुःख,

pichhale ashavaad kr baad achanak nirasha..??????

Jimmy said...

Nice Work


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राकेश जैन said...

dhanya bad !!

han di... sukh dukh hi to krum hai...