Sunday, May 29, 2011

वो जीते जी रहे नहीं, वो मरे हुए से हैं...

मित्रो! एक लम्बे अन्तराल के उपरांत एक कविता प्रेषित कर रहा हूँ, जो एक एसे व्यक्ति की अंतर्व्यथा है, जिसे ज़माना इस्तेमाल करना चाहता है, पर उसके इस इस्तेमाल से ज़माना खुद को ही छलता है....


यह कविता सिगरेटके शौकीनों के लिए चेतावनी भी है,,,






लोग खाक छानते रहे,
मैं धुआं हो गया।
वो मलते रहे उँगलियों मे,
मैं हवा हो गया॥
वो जलाते रहे,
उड़ाते रहे,
बना के गुल रास्ते में ,
मुझको झडाते रहे॥
बदन को पीते रहे,
शेष को,जूते से दबाते रहे।
वो नादान,
बेजान समझते थे मुझे,
मुझे जलाते तो रहे,
खुद को सुलगाते भी रहे।
मैं बुझ कर भी बुझा नहीं,
वो पीकर मुझे बुझे से हैं॥
मैं खाक रह गया हूँ,
या हो गया हूँ धुआं
वो जीते जी रहे नहीं,
वो मरे हुए से हैं॥

3 comments:

vandana gupta said...

यही सच है मगर लोग समझते नही हैं।

Preeti said...

Awesome....Too good dear :)

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

काश इस चेतावनी को लोंग समझें ..अच्छी प्रस्तुति