दिल घबरा सा रहा है, पर भी लिखा जा रहा है--------
पथरा गए हैं पेड़,
पत्तियां हो गयीं है चिमनियाँ।
रहा नहीं सुरक्षित ठहरना,पास,
दिन में भी रात में भी
सदा उगलती है CO2 गैस
नहीं बरसता h2o अब,
H2So4 की होती है,
मिली जुली वर्षा॥
granite के बगीचों में,
ठंडक नहीं होती है
होता है ज्वर सा कठिन ताप॥
बच्चों की शक्ल में,
पैदा होने लगे हैं रोबोट॥
आदमी हो गया है,
अर्ध मशीनी पुर्जा,
कठिन है ढूंढ़ पाना ठौर॥
दोपहर उग आती है,
सुबह के सूरज के साथ,
सबेरा अब सबेरा सा नहीं होता॥
घरों पर उगने लगा है,
टी.वी का छत्ता,
दादी ने बताया था,
खपरैल घरों में बारिश में,
उगा करता था, इसी शक्ल में कुकुर मुत्ता॥
छत्ता किरने खींच -२ कर दिखाता है,
बहु रंगी चित्र,
जिसमे बस अपना चेहरा नहीं होता॥
नज़रों और सितारों के बीच,
छाई रहती है, धुंए की परत,
सफ़ेद अब हो गया है off-white ।
अब आँगन में उगता है,
नीम का बोनसाई,
जिसकी छाओं में बमुश्किल,
सो पता है पालतू कुत्ता,
रोटी गोल नहीं रही,
हो गयी है चप्पल्नुमा,
खाने लगा है आदमी जाने क्या-२॥
कब्र में भी, अब,
महफूज़ नहीं हैं लाशें॥
आंसू बहाने के लिए,
आँखों में डालने पड़ते हैं स्प्रे॥
और हंसने के लिए अब चाहिए,
laughing गैस,
इतना बनावटी हो गया है, सब,
कि आदमी अब आदमी सा नहीं लगता॥
4 comments:
bahut sahi kaha rakesh...
Very true...but we are all the contributors!!
True....
Sahi kaha sir..par aap jaisa log bhi to hai.
Apki chipkali wali kavita padhkar apna Jabalpur ka din yaad aa gaya jab mai jabalpur me akala rahta tha
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