अकेलेपन में उपजी, एक सम्मिश्रित भावों की रचना, जिसमे भय भी है, भगवन भी है...
भय अज्ञात भयंकर,
मन को घेरे रहता,
ये धर्म सहारा दे कर,
मुझको थामे रहता॥
रखता एक पग, आगे,
दो पग पीछे जाता,
कैसा ये विश्वास हुआ,
एक पल में डिग जाता॥
जब न था कुछ,सुख,
तब ही सांचा सुख था,
अब सुख झूठा पाले,
मन भ्रम में है भरमाता॥
तान-वितान, सुर खोये हैं,
लय से टूटा नाता,
एक साधता, दूजा डिगता,
मन धर न पाए साता॥
कौन खीचता डोरी मेरी,
कठपुतली सा नाच नचाता,
कभी शिखर पर,कभी ज़मीं पर,
उठा-पटक कर खेल बनाता॥
इतना नीरव देकर मुझको,
जाने क्या है सिखलाता,
महफ़िल में भी रहूँ अकेला,
मन में भय इतना भर जाता॥
टूट गई होती अब तक तो,
साँसे भी इस पीड़ा में,
पर वो नट ही जाने क्यूँ,
और डोर बढ़ाता जाता.....
3 comments:
nice one....
टूट गई होती अब तक तो,
साँसे भी इस पीड़ा में,
पर वो नट ही जाने क्यूँ,
और डोर बढ़ाता जाता.....
saara saar in panktiyon mein hi chupa hai...........bahut sundar prastuti.
जब न था कुछ,सुख,
तब ही सांचा सुख था,
अब सुख झूठा पाले,
मन भ्रम में है भरमाता॥
sundar
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