आज दोपहर गुडगाँव पहुंचा, अपने घर आया, और एकांत मे उपजी एक कविता, गौर कीजिए,
खुश खबरी है,मेरे घर में,
छिपकली ने दिए हैं- अंडे॥
उनमे से कुछ एक खुल भी गए हैं,
कुछ अभी खुल रहे हैं॥
मुझे अब पता चला कि कोई है,
जो खुद को महफूज़ समझता है,
मेरे इर्द-गिर्द ॥
मैंने देखी नहीं कभी कोई,
दूसरी छिपकली अपने घर मे,
मैं तो इसे ही समझता था अब तक नर॥
पर यह तो मादा निकली,
जिसने सम्मान दिया मुझे,
जन कर अपने सुत-सुता मेरे पास॥
मैं अकेला नहीं रहा अब,
घर आने के लिए,
मन मे एक ख्याल रहने लगा है॥
क्या कर रहे होंगे लाडले,
बाकी के अंडे भी खुल चुकें शायद,
पहुंचू जब शाम तक घर पर॥
वो शरमाई सी दुबकी होगी,
कोने मे ,और दरवाजे खुलते ही,
इठलाकर छिप जाएगी,
दीवार पर टंगी तस्वीर के पीछे॥
मैं झांक कर देखता रहूँगा ,
उसे एक टक॥
और वो मुझे भी वैसे ही॥
अब अकेलापन नहीं लगता,
जल्दी रहती है,
ऑफिस से घर आने की,
और खुशी बहुत होती है,
कि कोई है! जो महफूज़ है,
मेरे आशियाने में॥
6 comments:
सागर के लिखारी..दमदार निकले
हम भी कमजोर दिले यार निकले
उसके काँटे भी फूल और
हमारे फूल भी खार निकले
खार काँटे
चलो कोई कली तो इंतजार करती है आपका
कितना भला सा लगता है..है न!!
pagal ho tum.... :)
Shukriya, Mujhe kisi tarah samza to sahi...
aate rahiye
after many time , I read a poet. it was very nice.i m impresed your thinking. i canit imagine.
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