Sunday, January 31, 2010

कदम-कदम पर ख़ार

कुछ ऐसे रिश्ते, जो बहुत करीब होते है, फिर भी पूरी तरह हक़ मे नहीं...

इतना भी नहीं हक़,

कि इक बार लूँ पुकार।

ज़िन्दगी ने मिला दिया,

पर दिया नहीं अधिकार॥

नीरस,निराश, बेबस बैठा,

देखूं,पल-पल राह।

पर पुकार न पाऊं,

बैठा हूँ लाचार॥

तुम भी हो पाबंद-बंद,

खुले नहीं सब द्वार।

इतनी मज़बूरी रख कैसे,

तुम करते हमसे प्यार॥

कहते हो सर्वस्व मुझे,

पर सर्वस्व नहीं मेरा।

ताक़त मेरी मौन सदा,

नियति के इस व्यवहार॥

करूँ मुआफ,या माँगू माफ़ी,

करूँ विनय या क्रोध॥

पा कर खाली बैठा,

कैसा सौंपा ये अधिकार।

दावे-वादे,चाँद सितारे,

मन भर के मनुहार।

बात भी हो सके,मुमकिन न हो,

कैसे हम बेतार॥

महलों के सुख,

मन निराश हो,

तन खाली,आँखें भीगी,

मन हुआ शक्ति से पार॥

छुप कर मिलना,

चार मिलन बस,

जीवन पूरा खाली।

कैसे संभव होगा आगे,

जब हों,कदम-२ पर ख़ार॥

5 comments:

Aditya Tikku said...

saral shabdo mai bhavo ko behtrin andaz mai prstut kiya hai

दिगम्बर नासवा said...

पा कर खाली बैठा,
कैसा सौंपा ये अधिकार
दावे-वादे,चाँद सितारे,
मन भर के मनुहार ...

सच है ......... मन को बहलाने के लिए हैं ये सब ..... कुछ ऐसा तो चाहिए जो जिंदगी बहला सके .... अच्छा लिखा है ........

vandana gupta said...

sundar prastuti.

गौतम राजऋषि said...

क्या लिखे हो राकेश!

बहुत सुंदर बन पड़ी है ये कविता...god bless you!

राकेश जैन said...

Aditya JI, Digambar Nasva Ji, Vandana ji, aur Veer Bhaiya bahut shukriya...Tah-e-dil shukria