महाकुम्भ रिश्तों का....
छूते ही लगा,
क्यूँ छुआ????
सरिता के निर्मल जल को।
गन्दा क्यूँ किया ??
सरिता सक्षम ; क्यूँ न रोके
मुझको टोके।
विस्मृत सा मैं ,
सुध-बुध खो कर,
छू-छू कर नदिया,
करता अठखेली,
फिर क्षण-क्षण सोचूं
हो न जाये मैली॥
शंका पढ़ ली, सरिता ने,
बोली,भोली-
मन से मुझमे,डुबकी,
मार सको तो मारो,
तेरे करने से मैं न,
हो पाऊँगी मैली॥
आ कर मुझसे मिल लो प्यारे,
सब दिन हो तेरे न्यारे,
मैं संकुचा सा बढ़ा, निर्मला,
मैं संकुचा सा बढ़ा, निर्मला,
पर तैयार नहीं हो पाया,
तेरी इतनी मृदुता से मन,
मेरा भर-२ आया॥
मैं उतरा जितना भीतर को,
उतना बाहर आया॥
तुम सी निर्झर सरिता,
मेरे नैनों मै उतरी है,
लगता है जितना डूबा,
मैं तुझमे, प्रिय!
तू मुझमे उतनी ही,
भीतर तक डूब गयी है...
3 comments:
बहुत भावपूर्ण सुन्दर रचना...
sundar rachna.
क्या बात है राकेश, बहुत खूब भाई मेरे।
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