Friday, October 30, 2009

एक ख़त सनम का





TELE कम्युनिकेशन के युग मे ख़त इत्तेफाक हो गए हैं, अब तो मोबाइल, बैंक खाते के ब्यौरे और कई ज़ुरूरी कागज़ भी इ-मेल के जरिये ही आया करते हैं.. पहले कुछ और ही मज़ा था , ऐसा कहते हैं, मगर मुझे लगता है, की अभी भी पोस्ट ओफ्फिसस और कुरिएर का अहम् स्थान है, ख़त लिखने का अलग रुतबा है, उसका इंतज़ार करने का अपना रंग है, और बल्ब की रौशनी मे लिफाफा देख कर फाड़ने का अभी भी मन मे ख्याल आता है, ख्याल आता है की अन्दर प्रेषित भावनाए क्षति न हो जाए॥ ख़त खोलने का अपना सलीका होता है, उसे पढ़ने से पहले उलट पलट के देखने का अपना नजरिया होता है... क्या होता है जब आता है बहुप्रीतिक्षित एक ख़त अपनी प्रेयषी का ???

एक कागज़,
कागज़ नही रहा,
हो गया है वोः,
एक हवाई जहाज़॥
शीश महल और,
अंतरिक्ष का एक,
महत्त्वपरक हिस्सा,
तुमने लिख दिये हैं उसमे,
अपनी ज़िन्दगी के,
कुछ पल,
अब मैं बिताना चाहता हूँ,
कुछ समय,
उसे देख कर।

बनाना चाहता हूँ ,
अपनी जिंदगी के कुछ क्षण,
बेशकीमती॥
घर मे खाली पडी है,
एक दीवार,
बहुप्रीतिक्षित॥
सजा देना चाहता हूँ- उसे,
एक सुंदर भावनाओं से
भरे चित्र से ,
सिरहाने रखना चाहता हूँ
एक बाइबल जो,
चिर निद्रा मे लीन होने तक,
मुझे थपथपाता रहे,
सहलाता रहे मेरे बाल ,
उम्र भर॥








Monday, October 12, 2009

मुझे आधार तो मिल सकता था!


एक मित्र जो ज़ुरूरत को समझे बगैर, या ज़ुरूरत की ज़ुरूरत को भुला कर चला गया, मैंने उस के व्यव्हार को अपने शब्द दिए, पता नही कितने सटीक हैं-




तुम चले गए,

बिना बुने खाट,

रोका था तुम्हें, कि

रुक कर बुनवाना

चारपाई॥

मगर तुम डरते थे,

शायद,खिंचते हुए,

सूत से,

तुम्हे तनाव मे,

व्यग्रता लगती है॥

और इसी लिए शायद,

तुमने भुला दिया

मुझे ही, कि

बुनना है चारपाई॥

ज़ुरूरी था मेरी

पीठ के लिए,

मेरे आधार के लिए॥

शायद !!!!!

तुम इस लिए भी

डर -सहम रहे थे

की खींचते मे,

टूट न जाए पुरानी

पड़ चुकी रस्सियाँ,

मगर तुम तोड़ते तो......

बहुत कुछ

बिगड़ थोड़े जाता,

गाँठ ही पड़ जाती

मगर कम से कम-२

इन सब तनाव, खिचाव

और गाँठों के रहते,

बुनी तो जाती

चारपाई॥

मुझे आधार तो

मिल सकता था॥