Friday, April 17, 2009

मित्रो तमाम कह जाने के बाद भी कुछ शेष रह जाता है,

देह से प्राण चुक जाते हैं॥

गौर फर्मायिएगा मेरा उन्मान, शेष .......

प्रष्ठ कम हैं शेष,

लिखना अभी विशेष।

बहुत है मन मे,

अति शेष॥

मगर सांसो का क्या,

ये अनिमेष॥

सब धरा रह जायेगा ,

इसी धरा पर,

हो विशेष,

या अति-विशेष।

जब होगा नहीं,

देह में ही,

जीवन कुछ शेष॥

लगने लगेंगे,शब्द कम,

कम अनुभूतियाँ,

प्रष्ठ भी अतिरेक,

सब कुछ समा ही जाएगा,

एक शब्द होगा मौत का,

मौन हो जाएगा- राकेश॥

Sunday, April 12, 2009

Recession का अवसाद


मित्रो ! recession का दौर जो बाज़ार मैं आया है उसका दर्द वही जान सकता है जो वास्तविकता मे उससे हो कर गुज़र रहा है, मेरी ये पोस्ट ऐसे ही एक ऑफिस से उपजा दर्द है, जिसमे मैंने कई दिलों के अन्दर चल रहे तूफ़ान का वर्णन करने की कोशिश की है॥

आशा है आप सभी को सटीकता का एहसास ज़ुरूर होगा॥

आइए आपको ले चलते हैं एक ऑफिस के भीतर जहाँ कुछ सह कर्मी दोपहर का खाना खाने बैठे है जो इस बात से वाकिफ हैं कि उनके कुछ साथी जॉब खो चुके हों, और अब उनमे से किसी का नाम आ सकता है,

दोपहर के खाने मे हुआ ज़िक्र,
क्यूँ नही लिखते वैसा ! कुछ॥

जैसा चल रहा है।
मैं मौन रह जाता हूँ,

कुछ कहूँ तो कैसे ?
जुटाए ही नही थे शब्द ,
कुछ ऐसा कहने के लिए,

जैसा चल रहा है॥

घटा ही नही कुछ ऐसा, जैसा,

घट रहाहै॥

सोचता हूँ! क्यूंकि सोचना

मन की खुराक है!

क्यूँ लौटता हूँ घर,और,

क्यूँ जाता हूँ काम पर।

कल-पुर्जे सा मैं क्यूँ?

लगातार दोहराता हूँ
अब भी सब कुछ,
जब लगता है कि,
इस दोहराव से कोई,

रस छीन लेना चाहता है॥

अब भी निकलता हूँ ,

उसी समय, उसी क्रम मे,

मगर उत्साह उतना नही होता,

होता था जितना ,कुछ ही,

दिनों पहले तक।

सोचता हूँ ! उन सभी चेहरों के बारे मे,

जो कभी अपरिचय से बंधे थे,

फिर परिचय मे बुने गए,

और अब लगने लगे हैं,

जैसे सूत से सूत का रिश्ता!!

वो कैसे मिलते होंगे अपने परिजनों से,

चेहरे पर मल कर सच कि उदासी॥

घर पहुँचते से ही, बच्चे चिपक जाते होंगे,

छाती से,मगर अब बांहे उन्हें भरकर,

छोड़ देती होंगी यक-ब-यक॥

एक गिलास पानी के साथ,

दाग दिया जाता होगा,

एक गोली कि तरह चुभीला प्रश्न,

आज क्या हुआ ? कुछ हुआ आगे?

कभी सर दर्द,

तो कभी बाद मे बात

करने का बहाना सुनकर,

वो ख़ुद ही बदल लेती होगी प्रश्न,

कभी ख़ुद ही पूछते होंगे पहुँच कर घर,

तैयार नही हुई ! बाज़ार जाना था न!!??

वो टाल देती है ज़ुरुरतों को,

परिस्थितियां पढ़कर॥

कह रही थी पिछले ही हफ्ते ,

क्यूँ न चला जाए, किसी हिल स्टेशन पर,

बेचैन कर रही हैं गर्मियां॥

पर आज अचानक ही बदल दिया है,

उसने मौसम का विज्ञान!!

कह उठती है, इस बार कितनी सुखद है,

आँगन के आम कि छांह।

विशेष नही लगती गर्मी!॥

जाने कितनी ही बातें इस प्रबाह में,

बहती हैं,पर मन कचोट कर,

चुप हो जाता है॥

निराशा को करते हैं ,

ढंकने कि कोशिश,

और मुस्कराते हैं, सब,

एक दूसरे को देख कर,

खाने कि टेबल पर॥

देखते हैं आसरों कि उम्मीद ,

इधर-उधर॥

भगवन से भी करना चाहते हैं,

बात इस बारे मे,

कि क्या हमे जमा करने होंगे,

कुछ शब्द लिखने के लिए वैसा,

जैसा चल रहा है,

या वो बस करने ही वाला है,

सब कुछ वैसा ,

जैसा लिखने के लिए हमने,

जमा कर रखे हैं ,

कई-२ शब्द कोष !!





















Sunday, April 5, 2009

अन्तिम यात्रा का सुख !


क्रम ताल मे आते हुए.... लीजिए मेरे चल रहे प्रयास का अगला सूत्र....

क्रम- मेरे मरने के बाद ॥

उनमान है, अन्तिम यात्रा का सुख !

सत्य स्वरूपी, मृत्यु जब,

महबूबा मेरी होगी,

क्या खूब घड़ी वह होगी !!

क्या खूब घड़ी वह होगी-

जब शयन करेगी काया,

घास-फूस के बिस्तर पर,

जो मखमल से नाज़ुक होगी॥

क्या खूब घड़ी वह होगी....

तान वितान चिर-निद्रा होगी,

आँख बंद जब होगी,

कंधा दे-२ लोग चलेंगे,

ऊँचे-नीचे पथ पर आगे,

मैं लेटा-२ झूलूँगा जब,

शान्ति संगिनी होगी॥

मुंह ढांके मैं श्वेत वसन से,

श्वांस स्वयं की लूँगा थाम,

ठंडे दिल को मौन देख कर,

तकलीफ किसी को न होगी॥

क्या खूब घड़ी वह होगी...

सत्य स्वरूपी मृत्यु जब,

महबूबा मेरी होगी॥

कस कर बाँध रखेंगे देह,

किंचित तकलीफ मुझे न होगी।

मौन साध कर दुनिया से जब,

देह जुदाई लेगी,

क्या खूब घड़ी वह होगी ,

सत्य स्वरूपी मृत्यु जब,

महबूबा मेरी होगी॥