Sunday, September 6, 2009

हमने तो बस प्रीति निभाई..



एक कविता, जो निष्प्रह प्रेम के लिए है, धरती और आकाश के प्रेम की कविता है, ऐ क्षितिज की कविता है...




फूलों पर पड़ गई ओ़स कि बूंदे,
जैसे तुम भीग गई हो मुझसे।
मुस्का कर लहराती है बगिया,
जैसे कुछ सीख रही है तुझसे॥


तुम हो जाती हो, अम्बर,
छा जाती हो मुझ पर।
मैं धरती हो जाता हूँ,
ओढ़ बैठता तेरा अम्बर॥


कब क्षितिज सच होता है,
कब धरती नभ से मिलती।
पर देखो तो नज़र गडा कर,
दिखती तो है मिलती॥


वैसा ही कुछ प्रेम हमारा,
मिलन नहीं हो पाया,
पर देखो तो कैसे बदरा,
धरती के घर आया,
कि पूरा आँगन छाया...

जब बरसे बदराए नैना,
धरती उमस भरे थी।
रोती सी दिखती न थी,
पर रोती बहुत रही थी॥

कौन करिश्माई है सक्षम,
ऐसा प्रेम जुटाया।
दूर पथिक दो,राह अलग हो,
पर मन कैसे मिलवाया॥

होगा कोई मकसद उसका,
जिसने प्रीति रचाई,
उसकी मर्ज़ी को माथे रख,
हमने तो बस प्रीति निभाई......
:)

6 comments:

vandana gupta said...

waah.........bahut hi sundar madhyam se preet ki reet nibhayi hai.

Udan Tashtari said...

बेहतरीन!!

वाणी गीत said...

बहुत बेहतरीन सुफिआना भाव लिए आत्मा को छूती मनमोहक कविता ..
शुभकामनायें ..!!

कंचन सिंह चौहान said...

होगा कोई मकसद उसका,
जिसने प्रीति रचाई,
उसकी मर्ज़ी को माथे रख,
हमने तो बस प्रीति निभाई......

sachchi prit milan ki mohtaz nahi hoti Rakesh.... us me nit milan hai..! tumhara man jo bahut achchha hai, us ka pratibimb hai ye kavitae.n

tum khoob khush raho

राकेश जैन said...

aap sabhi ka shukriya...man me aya maine farmaya..

Prem said...

bhavon ki sunder abhivykti