Sunday, June 28, 2009
Monday, June 22, 2009
उसने माँगा है मुझे,अगले जनम के लिए,
दोस्तों, देखिये न फीर कोई ज़िन्दगी मे आया, और कहने लगा इस बार तो हम मजबूर हैं, अगले जनम तेरे सनम,,,
हम से पूछिये क्या होता है दिल का, हाल॥ फिल हाल तो सुनिए इस बात के निकलने के बाद की बात का ज़िक्र!!
उसने माँगा है मुझे,
अगले जनम के लिए,
क्या सौगात दूँ,इस बात पर,
अपने सनम के लिए॥
मैं भी बुन रहा हूँ किस्से ,
जो बनेंगे जिंदगी के हिस्से,
तुम और मैं जब हम हो जाएँगे,
धड़कन -२ मैं बंध जायेंगे॥
पर अब हम किसी शहर मे नही मिलेंगे,
कोई छोटा गाँव देख ,हम पैदा होंगे,
एक झरना, एक पर्वत होगा,
गाय, बकरियां भेड़े होंगी।
कश्मीरी लड़की सी तुम,
सुंदर पोषा पहन कर आना,
मुझ ग्वाले को एक पोटली,
रोटी सत्तू बंध के लाना ॥
बैठ पर्वतों पर जीवन को गायेंगे हम,
अपनी गोद मे सर तेरा रख,
जुल्फों को सहलायेंगे हम॥
तुम नज़रों से छेड़ोगी ,और,
पलक झुका लोगी पल भर मे॥
फिर पलकों को ऊपर कर,
फलक उठा लोगी पल भर मे॥
मैं लिखूंगा, कवितायें,
तेरे रूप की तेरे रंग की।
गा-गा कर तुम्हे सुनाऊंगा,
मधु राग और नव-तरंग भी॥
मधुशाला से तेरे होंठ ये,
हो जायेंगे मेरे अपने,
सच हो जायेंगे सब सपने॥
धीर धरोगी, और मुझे भी,
धीरवान कर दोगी तुम,
मुझे मिलोगी जिस दिन प्रिय तुम,
कंचन जीवन कर दोगी तुम॥
Sunday, June 14, 2009
एक कविता तुम पर॥
एक रोमांटिक भाव
कविता, फुनगी पर,
चहकती एक चिडिया पर,
एक कविता, घिर आए बादरों पर,
कविता एक, रिमझिम-२
सावन पर॥
और, एक कविता तुम पर॥
लंबे बालों को जूडे मे,बांधे
एक लड़की पर,
मचलती, चहकती,
एक बातूनी लड़की पर,
और, एक कविता तुम पर॥
आषाढ़ मे आशा लगाए,
मेघों से,दरकती हुई ज़मीन पर॥
धरती मे धंसे प्यासे कुँए पर,
चंद्रमा पर कविता,
सितारों पर कविता,
और एक कविता तुम पर॥
गुलाबी-सफ़ेद पोशाक पर,
गाल मे पड़े गड्ढे पर,
अपने वर्ण पर, कद पर,
काया के सौष्ठव पर,
यही है प्रिये!!
एक कविता तुम पर॥
Sunday, June 7, 2009
विचार केंद्रित कवितायें
दो विचार केंद्रित कवितायें,
१) चक्रब्यूह मे फंसा एक और अभिमन्यु!!
चक्रब्यूह कई!
कई अभिमन्यु,
कई-२ कौरव//
मैं भी हूँ......
एन कई चक्रब्युहों मे से
किसी एक मे फंसा,
अर्धशिक्षित,
अभिमन्यु॥
घुस तो गया हूँ,
पर तोड़ रहा है,चक्रब्यूह,
मुझे.....!!
वैसे ही जैसे की छल के कौरवों ने,
सम्पन्न कर दिया था,
एक वीर अभिमन्यु!!
पाप भी सक्षम है,
जीतने में,
दुनिया की किताब कहती है॥
कहता है चित्र-
विचित्र बड़ा है,
न्याय और अन्याय
के बीच तालमेल॥
कौरवों का तंत्र
खुश है,आज भी,
तैयार है बलि, उसके लिए।
चक्रब्यूह मे फंसा एक और अभिमन्यु!!
२) माना तुम हो बुद्धिजीवी,
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो!
माना तुम हो बुद्धिजीवी,
पर तुम ,
शलभ तो नही!
होते जो तुम तो,
कहते न प्रेम की
अनुभूति को,
लिप्सा की गंदगी!!
वरन होते ख़ुद रत!
रोते लिपट-२ ,
खोते तुम प्राणों को,
ज्योति मे सिमट-२,
अंधेरे मे घुट कर जीने से,
लगता ये अंदाज़ भला।
उजारे के आलिंगन मे,
मौत का रूप उजला-२!
शलभ की विपदा को,
लिप्सा तो न कहो!!