मेरी यह कविता मेरे बचपन से जुड़ी है, साथ ही इस के अन्दर हमारी परम्पराओं और संस्कृति की खुशबु भी महकती है,मध्य भारत मे एक परम्परा है अक्षय तृतीय पर विवाह संपन्न करने की , और यह परम्परा बच्चों द्वारा प्रतीकात्मक रूप मे खेली जाती है, हम भी बचपन के उन दिनों मे पीपल के पेड़ के नीचे जाकर (हरदौल बावा के पास ) अपने माटी के गुड्डे -गुडिया का ब्याह रचाते थे, और अपने संगी-साथियों के साथ रोटी पन्ना खेलते थे ,इस खेल मे रोटियां झूठ की होती थी, पकवान भी काल्पनिक होते थे पर भावनाएं बहुत ही पवित्र और अंतरंग से निकली हुई होती थी ॥ लीजिए आप भी इस अनूठी चुहल भरी कविता का लुत्फ़ लीजिए-
आओ लाडो !
खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।
तुम ले आओ अपनी बन्नी ,
मैं ले आया अपना बन्ना ॥
सरकारी दफ्तर जाता है,
रुपये हज़ार कमाता है।
तेरी बन्नी को क्या आता है,
क्या अच्छा खाना बन पाता है ?
मेरा गुड्डा अच्छे खाने का है शौकीन,
रोज़ चाहिए मीठा, रोज़ खाए नमकीन।
खूब सोच लो ठाठ रहेगी,
मेरे घर मे आराम करेगी॥
मगर रुपैया लाख लगेगा,
घर गृहस्थी का साज लगेगा,
होती हो राजी तो आना ,
हम लाल चुनरिया डाल ही देंगे।
तेरी बन्नी को अपना मान ही लेंगे॥
आओ लाडो !
खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।
तुम ले आओ अपनी बन्नी,
मैं ले आया अपना बन्ना॥