Sunday, April 27, 2008

मैं सोचता बहुत हूँ !!

मैं सोचता हूँ-

इतना,कि

सोचकर थक जाता हूँ॥

मैं सोचता क्यों हूँ !? इतना,

मैं ये भी सोचता हूँ॥

पता नही तुम्हे,कि

अगर न सोचता मैं तो,

मैं सोचता बस इतना ,कि

मैं ज़्यादा सोचता नहीं हूँ॥

मैं बीमार तो नहीं हूँ !?

तुम सोचते होगे॥

मगर सोच होती अगर बीमारी,

तो तुम क्यों सोचते मेरे लिए !! ऐसा

मुझे यकीन है,

मेरा दोस्त बीमार नही हैं॥

मैं सोचता हूँ बस इतना,

कि मैं सोचता बहुत हूँ !!

Tuesday, April 22, 2008

रोटी-पन्ना।

मेरी यह कविता मेरे बचपन से जुड़ी है, साथ ही इस के अन्दर हमारी परम्पराओं और संस्कृति की खुशबु भी महकती है,मध्य भारत मे एक परम्परा है अक्षय तृतीय पर विवाह संपन्न करने की , और यह परम्परा बच्चों द्वारा प्रतीकात्मक रूप मे खेली जाती है, हम भी बचपन के उन दिनों मे पीपल के पेड़ के नीचे जाकर (हरदौल बावा के पास ) अपने माटी के गुड्डे -गुडिया का ब्याह रचाते थे, और अपने संगी-साथियों के साथ रोटी पन्ना खेलते थे ,इस खेल मे रोटियां झूठ की होती थी, पकवान भी काल्पनिक होते थे पर भावनाएं बहुत ही पवित्र और अंतरंग से निकली हुई होती थी ॥ लीजिए आप भी इस अनूठी चुहल भरी कविता का लुत्फ़ लीजिए-

आओ लाडो !

खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।

तुम ले आओ अपनी बन्नी ,

मैं ले आया अपना बन्ना ॥

सरकारी दफ्तर जाता है,

रुपये हज़ार कमाता है।

तेरी बन्नी को क्या आता है,

क्या अच्छा खाना बन पाता है ?

मेरा गुड्डा अच्छे खाने का है शौकीन,

रोज़ चाहिए मीठा, रोज़ खाए नमकीन।

खूब सोच लो ठाठ रहेगी,

मेरे घर मे आराम करेगी॥

मगर रुपैया लाख लगेगा,

घर गृहस्थी का साज लगेगा,

होती हो राजी तो आना ,

हम लाल चुनरिया डाल ही देंगे।

तेरी बन्नी को अपना मान ही लेंगे॥

आओ लाडो !

खेले हम-तुम,रोटी-पन्ना।

तुम ले आओ अपनी बन्नी,

मैं ले आया अपना बन्ना॥