Sunday, February 21, 2010

है बसंत आमंत्रित!!!.....


आइये स्वागत करें ऋतुराज का....


शिराओं में जैसे

खलबला कर दौड़ा हो खूँ,

स्पंदनों ने जकड ली हो,

भागते घोड़ों की टापें॥

साँसे बह रही

अनियंत्रित........

है बसंत, आमन्त्रित॥

मदन की आँखों का रंग

चढ़ गया टेसू के फूल,

बौराए हैं घबराये से

आम के पेड़,

कोयल कुहुक रही

मिष्ट-अमित............

है बसंत आमन्त्रित॥

फुनगी पे चिडयाँ

काम मे हैं लीन,

दुपहरी की वायु में

नशा है संगीन,

चलने से पहले पद हुए

विचलित.......

है बसंत आमंत्रित॥

धरते ही पग अब

उड़ने लगी धूल,

चढ़ते ही दिन के

सजने लगे फूल,

नयी- नयी कलियाँ हुई हैं

कुसमित.......

है बसंत आमंत्रित॥

रात हुई सर्द-गर्म

दिन हुए गर्म-गर्म,

न बिस्तरों को चैन

न चादरों को चैन,

सलवटें पड़ी रही चादरों में

अनवरत.......

है बसंत आमंत्रित॥

काज में न मन आज

न डर है समाज का,

सभी का यही हस्र्त्र

ये काम कामराज का,

हवा बह रही अब हो कर

असंतुलित........

है बसंत आमंत्रित॥




















Sunday, February 14, 2010

प्रेम पत्र पुस्तिका -१









प्रिय,
महज ख़त नहीं है, एक अरमान है जो पैग़ाम हो जाना चाहता है॥




सुबह उठा तो लगा, कि शबनम पत्तियों को निर्मल करके, उनके कोमार्य को महफूज़ करना चाह रही थी। मुझे वो संस्पर्श याद है जो कहीं न कहीं , इतनी ही पवित्र भावनाओं को लिए हमारे बीच पल्लवित हुए।
यादों के मंजर, ख़त मे नहीं समा सकते, पर मन करता है, कि आकाश को भी शब्दों मे बाँध कर गठरी तुम्हे सौंप दूँ।




जहाज़ पे एक मचान बना कर समन्दर कि अतुल जल राशियों को एक टक देखूं और लहरों पे छपते हुए तुम्हारे प्रितिबिम्ब को चूमने कि कोशिश करूँ.... कब ऐसी यात्रा के ख़्वाब हक़ीकत हो पाएंगे।




पता है, कल एक ग़ुलाब बेचने वाले ने पूछा था, ले जाइये न साहिब, मेमसाहिब खुश हो जायेंगी। मन ही मन उत्तर दिया, कि काश ग़ुलाब के ऊपर ग़ुलाब सजते होते ... तुम खुद वो पुष्प हो जिसकी मधुर सुगंध मेरी साँसों को सुवासित करती है।
कौन सा फूल फबेगा मेरी मोहतरमा पर।


चंद्रमा कल था नहीं, बैरी कि ज़ुरूरत भी न थी, कल खिड़कियाँ उसकी रोशनी से नहाना भी न चाहती थी। कल तो दो ऑंखें खिडकियों पर सजी रही और सिरहाने से दो हाथ निकल कर रात भर बालों में उँगलियाँ फिराते रहे ॥
अजीब ही इत्तेफाक हुआ , सुबह को उठे तो लगा, तुमने कंधे को थपथपाया था उठो चाय तैयार है....पता नहीं, वैसे तुमने कभी मुझे चाय नहीं पिलाई पर आज कि सुबह जाने क्यूँ, प्याला लिए खड़ी थी॥




अब बर्तनों को छूता हूँ kitchen मे जा कर तो शिकायतें मिलती हैं, कब तक इन कठोर हाथों के स्पर्श से उनको दुखते रहना है.... पूछते हैं बेजान, कब आएगी उम्मीदों की परी ।




पता है कल गुजरती train की खिड़की पर एक लड़की ने बिलकुल वैसा दुपट्टा डाला था, जो तुम ने पिछले ख़त मे लिखा था, तुम लायी हो बाज़ार से, नीले पे पीले बूटे ....पर वो लड़की तुम नहीं थी... किसी और शहजादे सलीम की अनारकली होगी । पर उम्मीदों का एक बड़ा सा जहाँ है,वहां तुम रोज़ आती हो, हर क्षण , हर पल होती हो..... नीले पे पीले बूटे वाला दुपट्टा डाले॥



ख़त नहीं है प्रिये, प्रुतिउत्तर मत करना, एहसास है, एक कागज़ के टुकड़े मे लपेट कर संप्रेषित कर रहा हूँ, ये अनावरण का संकेत है, एक मिलन कि गुहार और शबनमी कोमलता को चूम लेने का आग्रह है॥



ऐसे स्पर्शों की प्रतिलिपि जिनमे हिंसा की कठोरता नहीं , अहिंसा का माधुर्य है एक ऐसी छुअन जिसमे नक्काशियों की गहराई है, शिल्प का उत्कृष्ट सौंदर्य है, दिलों की चाहतों का सजीव अनुवाद है...........



कब मिलोगी???? .....