Sunday, January 31, 2010

कदम-कदम पर ख़ार

कुछ ऐसे रिश्ते, जो बहुत करीब होते है, फिर भी पूरी तरह हक़ मे नहीं...

इतना भी नहीं हक़,

कि इक बार लूँ पुकार।

ज़िन्दगी ने मिला दिया,

पर दिया नहीं अधिकार॥

नीरस,निराश, बेबस बैठा,

देखूं,पल-पल राह।

पर पुकार न पाऊं,

बैठा हूँ लाचार॥

तुम भी हो पाबंद-बंद,

खुले नहीं सब द्वार।

इतनी मज़बूरी रख कैसे,

तुम करते हमसे प्यार॥

कहते हो सर्वस्व मुझे,

पर सर्वस्व नहीं मेरा।

ताक़त मेरी मौन सदा,

नियति के इस व्यवहार॥

करूँ मुआफ,या माँगू माफ़ी,

करूँ विनय या क्रोध॥

पा कर खाली बैठा,

कैसा सौंपा ये अधिकार।

दावे-वादे,चाँद सितारे,

मन भर के मनुहार।

बात भी हो सके,मुमकिन न हो,

कैसे हम बेतार॥

महलों के सुख,

मन निराश हो,

तन खाली,आँखें भीगी,

मन हुआ शक्ति से पार॥

छुप कर मिलना,

चार मिलन बस,

जीवन पूरा खाली।

कैसे संभव होगा आगे,

जब हों,कदम-२ पर ख़ार॥

Saturday, January 16, 2010

महाकुम्भ रिश्तों का


महाकुम्भ रिश्तों का....


छूते ही लगा,

क्यूँ छुआ????

सरिता के निर्मल जल को।

गन्दा क्यूँ किया ??

सरिता सक्षम ; क्यूँ न रोके

मुझको टोके।

विस्मृत सा मैं ,

सुध-बुध खो कर,

छू-छू कर नदिया,

करता अठखेली,

फिर क्षण-क्षण सोचूं

हो न जाये मैली॥

शंका पढ़ ली, सरिता ने,

बोली,भोली-

मन से मुझमे,डुबकी,

मार सको तो मारो,

तेरे करने से मैं न,

हो पाऊँगी मैली॥

आ कर मुझसे मिल लो प्यारे,

सब दिन हो तेरे न्यारे,
मैं संकुचा सा बढ़ा, निर्मला,

पर तैयार नहीं हो पाया,

तेरी इतनी मृदुता से मन,

मेरा भर-२ आया॥

मैं उतरा जितना भीतर को,

उतना बाहर आया॥

तुम सी निर्झर सरिता,

मेरे नैनों मै उतरी है,

लगता है जितना डूबा,

मैं तुझमे, प्रिय!

तू मुझमे उतनी ही,

भीतर तक डूब गयी है...






Sunday, January 3, 2010

बिटिया


नए साल की प्रथम कविता,
उन्मान है बिटिया।
बिटिया चाहती है,
एक ऐसी कविता,
जो उसे कह दे वैसा,
जैसा वो मुझे
महसूस होती है॥
सलोनी को कैसे कहूँ,
की वो है रौनक!
हमारे आँगन की,
चिड़िया है वो,
जो चहक-२ करती है,
बातें, और फुदक-२
बताती है अपनी सौगातें॥
वो जो मेज पर रखे गुलदान को,
भी रखना चाहती है,
उतना ही सजीव,
जितनी जीवन्तता तैरती है,
उसकी अपनी आँखों मे॥
उसने देखा है एक स्वप्न,
उम्दा से उम्दा करने का,
और अब इस चाहत मे ,
वो छोड़ आई है,
माँ का आँचल॥
कर रही है तैयारी ,
एक मुहिम की,
ताकि वो पाले,
एक मुक़ाम॥
वो तकती है
हथेली पर तनी,
आढ़ी व खड़ी लकीरें,
और चाहती है,
जानना उनका अनूठा विज्ञानं॥
वो पढ़ लेना चाहती है,
अपने आना वाला कल,
आज ही से, क्यूंकि,
उसका जिज्ञासु मन ही,
तो उसे बनाता है सबल,
सफल, चंचल
और सुन्दर जैसे
मोगरा के फूल से
लिपटी हुई तितली॥
बिटिया चाहती है एक कविता........