Saturday, August 21, 2010
सूरज लौट गया संध्या आने पर..
Sunday, August 8, 2010
आदमी अब आदमी सा नहीं लगता
दिल घबरा सा रहा है, पर भी लिखा जा रहा है--------
पथरा गए हैं पेड़,
पत्तियां हो गयीं है चिमनियाँ।
रहा नहीं सुरक्षित ठहरना,पास,
दिन में भी रात में भी
सदा उगलती है CO2 गैस
नहीं बरसता h2o अब,
H2So4 की होती है,
मिली जुली वर्षा॥
granite के बगीचों में,
ठंडक नहीं होती है
होता है ज्वर सा कठिन ताप॥
बच्चों की शक्ल में,
पैदा होने लगे हैं रोबोट॥
आदमी हो गया है,
अर्ध मशीनी पुर्जा,
कठिन है ढूंढ़ पाना ठौर॥
दोपहर उग आती है,
सुबह के सूरज के साथ,
सबेरा अब सबेरा सा नहीं होता॥
घरों पर उगने लगा है,
टी.वी का छत्ता,
दादी ने बताया था,
खपरैल घरों में बारिश में,
उगा करता था, इसी शक्ल में कुकुर मुत्ता॥
छत्ता किरने खींच -२ कर दिखाता है,
बहु रंगी चित्र,
जिसमे बस अपना चेहरा नहीं होता॥
नज़रों और सितारों के बीच,
छाई रहती है, धुंए की परत,
सफ़ेद अब हो गया है off-white ।
अब आँगन में उगता है,
नीम का बोनसाई,
जिसकी छाओं में बमुश्किल,
सो पता है पालतू कुत्ता,
रोटी गोल नहीं रही,
हो गयी है चप्पल्नुमा,
खाने लगा है आदमी जाने क्या-२॥
कब्र में भी, अब,
महफूज़ नहीं हैं लाशें॥
आंसू बहाने के लिए,
आँखों में डालने पड़ते हैं स्प्रे॥
और हंसने के लिए अब चाहिए,
laughing गैस,
इतना बनावटी हो गया है, सब,
कि आदमी अब आदमी सा नहीं लगता॥
Saturday, July 24, 2010
प्यारी कंचन दी!
प्यारी कंचन दी!
एक दुआ कि साहित्य के आसमान पर चंदा की तरह चमको॥
जन्म दिवस की शुभ कामना ,
सिंदूरी माहताब देता,
दूधिया आफ़ताब देता,
उसकी हर आरज़ू का,
मैं यूँ जवाब देता..
वो दूर, है पर,
ग़र मेरे करीब होता,
गुलशन का हर ऐक,
उसको हसीं ग़ुलाब देता..
वो है हसीं शख्स ख़ुद,
मांगेगा न मुझसे,ऐ सब,
सोचता हूँ मैं तब,
उसे कैसे नवाज़ देता..
जो आसमान सा बृहत,
जो सूरज सा उज्जवल,
उसे मैं क्या सवाब देता..
जिसने रखे सजो कर,
ग़म भी जैसे मोती,
उस इंसानियत के बुत को,
मैं क्या लिहाफ देता..
सब सोच कर फिर सोचा,
दूंगा नहीं मैं उसको,
कुछ मांगता हूँ उससे,
क्या वो हसीन मुझ को,
एक वादा शुमार देगा,
हँसता रहेगा हर दम,
ये बात मान लेगा..
कितनी रहेगी मुश्किल,
तूफ़ान भी घिरेंगे,
वो हो कर के सबसे आगे,
क़िश्ती निकाल लेगा॥
सिंदूरी माहताब देता,
दूधिया आफ़ताब देता,
उसकी हर आरज़ू का,
मैं यूँ जवाब देता॥
Sunday, June 27, 2010
कविताएँ..
अपनी diary के पन्नों को पलट रहा हूँ, सोचा ये दो कविताएँ आपसे भी बाँटू ....
१) तितलियाँ.....
दरवाजा खुलने की आहट हो,
कि लगता है, तुम आई हो॥
तुम तो जानती हो कि,
मैं भूल जाता हूँ॥
भूल जाता हूँ कि,
तितलियों के आने में,
न आहट जुरुरी है,
न दरवाजा खुलना॥
बस जुरुरी है तो इतना,
कि अन्दर कोई महक,
उनका स्वागत कर रही हो॥
वो आ जाती हैं,दरख्तों से,
झोंको से,वातायनों से,
और नहीं तो वो पैदा हो जाती है,
उस ख़ुश्बू मे खुद -ब-खुद,
अभी-अभी,जैसा हुआ॥
२) मैं!
मैं एक ऐसी क़िताब हूँ,
जिसकी आवरण पृष्ट के अलावा,
सारी पृविष्टियाँ सबल हैं॥
और वो एक ऐसी क़िताब हैं,,
जिनकी आवरण पृष्ट के अलावा,
सारी पृविष्टियाँ,शून्य॥
मगर वो सफल हैं,
क्यूंकि इस दौर में,
भीतर झाँकना कौन चाहता है॥
दो क्षणिकाएं...
१)तुम रोया मत करो
आंसुओं को,
शर्मिंदगी महसूस होती है,
झूठा रोना रोने में॥
२) गलियाँ मौन इसलिए नहीं,
कि बहुत देर से कोई गुज़रा नहीं॥
बल्कि यूँ, कि वो गुजरने वालों से,
अब बात नहीं करती॥
Sunday, June 20, 2010
मौन क्यूँ हो, बोल दो
मौन क्यूँ हो?
बोल दो !
पट खोल दो।
अधरों से कह दो,
कुछ कहें॥
नैनों को कह दो,
झांक लें,
पलकों से बाहर।
कह दो उन्हें,
हमें देख लें॥
केश लहराओ ज़रा,
फैला दो उन्हें,
कि आकर वो हम तक,
चेहरा हमारा चूम लें॥
मैं हूँ, व्याकुल,
चिंतित और आकुल,
अपने ह्रदय से कहो,
आकर हमे वो चैन दे॥
दे दो सहारा,
छू कर मुझे तुम,
हम खो कर स्वयं को,
तुम से तुम्ही को,
छीन लें॥
मौन क्यूँ हो?
बोल दो !
पट खोल दो।
अधरों से कह दो,
कुछ कहें॥
न करें अठखेलियाँ,
अब जान जाती है,
हलक से,
पास आकर बैठ लें,
थोडा हमे वो प्यार दे,,,,
Sunday, May 9, 2010
कविता बन बह जाती माँ!
सबकी ही होती है,
सबसे ज्यादा अच्छी माँ॥
ममता का वरदान बांटती,
आंच न आये बच्चों को,
जतन यही वो रखे लगा कर,
तब कहलाती अच्छी माँ॥
एक माँग पर अगर मना हो,
फुला के मुंह, हम बैठे कोने,
छाती में अपनी भर-भर कर,
अच्छा बुरा बताती माँ॥
मन उदास हो, रूखा हो मन,
झगडा कर आया है बेटा।
चेहरा देख समझती माँ॥
मौन रहो तो पूछे,क्यूँ चुप?
बोलो ज़्यादा तो भी टोके,
मर्यादा के बंध हैं कितने,
ये भी पाठ पढ़ाती माँ॥
फुनगी पर से शोर मचाते,
चिड़िया के छोटे बच्चों को,
मुह भर दाना लाती माँ॥
तुअर, चावल, सब्ज़ी,पापड़,
थाली का श्रंगार देख लो।
तुलसी,मंदिर,दीपक-बाती,
हर ख़ुश्बू में- मिल जाती माँ॥
आज बैठ कर दिवस मनाते,
एक दिन में अधिकार जताते,
वो रोज़-२ उतनी ही पावन,
कहाँ मौके कि मोहताज है माँ॥
छंद, काव्य, गीतों से क्या हो,
कितना-२ कौन लिखेगा,
कभी कलम से, कभी आँख से,
कविता बन बह जाती माँ॥
Sunday, April 18, 2010
भय, भगवन और मैं कठपुतली
अकेलेपन में उपजी, एक सम्मिश्रित भावों की रचना, जिसमे भय भी है, भगवन भी है...
भय अज्ञात भयंकर,
मन को घेरे रहता,
ये धर्म सहारा दे कर,
मुझको थामे रहता॥
रखता एक पग, आगे,
दो पग पीछे जाता,
कैसा ये विश्वास हुआ,
एक पल में डिग जाता॥
जब न था कुछ,सुख,
तब ही सांचा सुख था,
अब सुख झूठा पाले,
मन भ्रम में है भरमाता॥
तान-वितान, सुर खोये हैं,
लय से टूटा नाता,
एक साधता, दूजा डिगता,
मन धर न पाए साता॥
कौन खीचता डोरी मेरी,
कठपुतली सा नाच नचाता,
कभी शिखर पर,कभी ज़मीं पर,
उठा-पटक कर खेल बनाता॥
इतना नीरव देकर मुझको,
जाने क्या है सिखलाता,
महफ़िल में भी रहूँ अकेला,
मन में भय इतना भर जाता॥
टूट गई होती अब तक तो,
साँसे भी इस पीड़ा में,
पर वो नट ही जाने क्यूँ,
और डोर बढ़ाता जाता.....
Sunday, April 11, 2010
मेरे आशियाने मे
आज दोपहर गुडगाँव पहुंचा, अपने घर आया, और एकांत मे उपजी एक कविता, गौर कीजिए,
खुश खबरी है,मेरे घर में,
छिपकली ने दिए हैं- अंडे॥
उनमे से कुछ एक खुल भी गए हैं,
कुछ अभी खुल रहे हैं॥
मुझे अब पता चला कि कोई है,
जो खुद को महफूज़ समझता है,
मेरे इर्द-गिर्द ॥
मैंने देखी नहीं कभी कोई,
दूसरी छिपकली अपने घर मे,
मैं तो इसे ही समझता था अब तक नर॥
पर यह तो मादा निकली,
जिसने सम्मान दिया मुझे,
जन कर अपने सुत-सुता मेरे पास॥
मैं अकेला नहीं रहा अब,
घर आने के लिए,
मन मे एक ख्याल रहने लगा है॥
क्या कर रहे होंगे लाडले,
बाकी के अंडे भी खुल चुकें शायद,
पहुंचू जब शाम तक घर पर॥
वो शरमाई सी दुबकी होगी,
कोने मे ,और दरवाजे खुलते ही,
इठलाकर छिप जाएगी,
दीवार पर टंगी तस्वीर के पीछे॥
मैं झांक कर देखता रहूँगा ,
उसे एक टक॥
और वो मुझे भी वैसे ही॥
अब अकेलापन नहीं लगता,
जल्दी रहती है,
ऑफिस से घर आने की,
और खुशी बहुत होती है,
कि कोई है! जो महफूज़ है,
मेरे आशियाने में॥
Sunday, April 4, 2010
स्थानांतरण
आज काफी दिनों बाद लिख रहा हूँ... इस समय मैं स्वचालित न हो कर वक़्त के प्रवाह मे बह रहा एक जल बिंदु हो गया हूँ।
मैं मध्य प्रदेश का रहने वाला हूँ और अब तक की पढाई और नौकरियां सभी स्वप्रदेश मे चलती रही, ऐसा नहीं कहूँगा के मै भारत का बेटा नहीं हूँ या किसी अन्य प्रदेश से मुझे कोई जुगुप्सा या नफरत है,किन्तु हम जिस लोक संस्कृति और वातावरण मे लम्बे अन्तराल तक रहे हों उससे लगाव हो जाता है और उससे विलग होने मे तकलीफ महसूस करते हैं।
या कहें सामान्य आदमियों की भांति मैं भी हूँ जिसका सुरक्षा कवच उतरता है तो भय मन मे भर जाता है।
खैर आपसे वह बात बांटता हूँ जो अहम् है,और वह है की मेरी सेवाएं कंपनी ने गुडगाँव स्थानांतरित कर दी हैं,
घर भी किराये से ले लिया है,किन्तु अभी ऑफिस ज्वाइन करने मे एक सप्ताह बाकी है, इस सप्ताह मे भोपाल मे ही हूँ,और १२.०४ से गुडगाँव का नियमित रहवासी हो जाऊंगा,
माँ के घर से मौसी का घर बहुत दूर है,देखना है अब मै इस नए पड़ाव पर कितने दिन के लिए आया हूँ, क्यूंकि मंजिल तो यह भी नहीं है॥
बड़ा अचरज होता है, तरक्की के पीछे के वो सच महसूस कर के जो वाकई आपकी कमजोरियों को इंगित करते हैं,घर से दूर होना ,फिर गृह राज्य से दूर होना। पता नहीं आगे क्या है॥
दोपहर के समय की बात है,यानि मेरी ज़िन्दगी का मध्याहन का समय है,मै ३० की आयुवय वाला युवक
अपनी शादी के सपने सजोये (जा को राखे साईंआ मार सके न कोय )एक निर्बाध और सतत जिंदगी मे लय भर रहा था,की तभी वक़्त ने वीणा वापस लेकर guitar थमा दिया। वक़्त शायद आजमाना चाहता हो की मुझे सुरों का ज्ञान है या साधनों का या मे दोनों मे ही तारतम्य बिठा सकता हूँ।
अद्भुत है सब का सब, शहर मे अजनबीपन है, घर मे अकेलापन और काम पर नयी चुनौतियाँ, इसी उधेड़बुन मे कुछ दिन के विराम के बाद आज लिख रहा हूँ।
अपनी दुआओं में मेरे लिए जगह रखना,
मैं पहुँच जाऊंगा, बस इतना भरोसा रखना॥
Sunday, February 21, 2010
है बसंत आमंत्रित!!!.....
Sunday, February 14, 2010
प्रेम पत्र पुस्तिका -१
प्रिय,
महज ख़त नहीं है, एक अरमान है जो पैग़ाम हो जाना चाहता है॥
सुबह उठा तो लगा, कि शबनम पत्तियों को निर्मल करके, उनके कोमार्य को महफूज़ करना चाह रही थी। मुझे वो संस्पर्श याद है जो कहीं न कहीं , इतनी ही पवित्र भावनाओं को लिए हमारे बीच पल्लवित हुए।
यादों के मंजर, ख़त मे नहीं समा सकते, पर मन करता है, कि आकाश को भी शब्दों मे बाँध कर गठरी तुम्हे सौंप दूँ।
जहाज़ पे एक मचान बना कर समन्दर कि अतुल जल राशियों को एक टक देखूं और लहरों पे छपते हुए तुम्हारे प्रितिबिम्ब को चूमने कि कोशिश करूँ.... कब ऐसी यात्रा के ख़्वाब हक़ीकत हो पाएंगे।
पता है, कल एक ग़ुलाब बेचने वाले ने पूछा था, ले जाइये न साहिब, मेमसाहिब खुश हो जायेंगी। मन ही मन उत्तर दिया, कि काश ग़ुलाब के ऊपर ग़ुलाब सजते होते ... तुम खुद वो पुष्प हो जिसकी मधुर सुगंध मेरी साँसों को सुवासित करती है।
कौन सा फूल फबेगा मेरी मोहतरमा पर।
चंद्रमा कल था नहीं, बैरी कि ज़ुरूरत भी न थी, कल खिड़कियाँ उसकी रोशनी से नहाना भी न चाहती थी। कल तो दो ऑंखें खिडकियों पर सजी रही और सिरहाने से दो हाथ निकल कर रात भर बालों में उँगलियाँ फिराते रहे ॥
अजीब ही इत्तेफाक हुआ , सुबह को उठे तो लगा, तुमने कंधे को थपथपाया था उठो चाय तैयार है....पता नहीं, वैसे तुमने कभी मुझे चाय नहीं पिलाई पर आज कि सुबह जाने क्यूँ, प्याला लिए खड़ी थी॥
अब बर्तनों को छूता हूँ kitchen मे जा कर तो शिकायतें मिलती हैं, कब तक इन कठोर हाथों के स्पर्श से उनको दुखते रहना है.... पूछते हैं बेजान, कब आएगी उम्मीदों की परी ।
पता है कल गुजरती train की खिड़की पर एक लड़की ने बिलकुल वैसा दुपट्टा डाला था, जो तुम ने पिछले ख़त मे लिखा था, तुम लायी हो बाज़ार से, नीले पे पीले बूटे ....पर वो लड़की तुम नहीं थी... किसी और शहजादे सलीम की अनारकली होगी । पर उम्मीदों का एक बड़ा सा जहाँ है,वहां तुम रोज़ आती हो, हर क्षण , हर पल होती हो..... नीले पे पीले बूटे वाला दुपट्टा डाले॥
ख़त नहीं है प्रिये, प्रुतिउत्तर मत करना, एहसास है, एक कागज़ के टुकड़े मे लपेट कर संप्रेषित कर रहा हूँ, ये अनावरण का संकेत है, एक मिलन कि गुहार और शबनमी कोमलता को चूम लेने का आग्रह है॥
ऐसे स्पर्शों की प्रतिलिपि जिनमे हिंसा की कठोरता नहीं , अहिंसा का माधुर्य है एक ऐसी छुअन जिसमे नक्काशियों की गहराई है, शिल्प का उत्कृष्ट सौंदर्य है, दिलों की चाहतों का सजीव अनुवाद है...........
कब मिलोगी???? .....
Sunday, January 31, 2010
कदम-कदम पर ख़ार
कुछ ऐसे रिश्ते, जो बहुत करीब होते है, फिर भी पूरी तरह हक़ मे नहीं...
इतना भी नहीं हक़,
कि इक बार लूँ पुकार।
ज़िन्दगी ने मिला दिया,
पर दिया नहीं अधिकार॥
नीरस,निराश, बेबस बैठा,
देखूं,पल-पल राह।
पर पुकार न पाऊं,
बैठा हूँ लाचार॥
तुम भी हो पाबंद-बंद,
खुले नहीं सब द्वार।
इतनी मज़बूरी रख कैसे,
तुम करते हमसे प्यार॥
कहते हो सर्वस्व मुझे,
पर सर्वस्व नहीं मेरा।
ताक़त मेरी मौन सदा,
नियति के इस व्यवहार॥
करूँ मुआफ,या माँगू माफ़ी,
करूँ विनय या क्रोध॥
पा कर खाली बैठा,
कैसा सौंपा ये अधिकार।
दावे-वादे,चाँद सितारे,
मन भर के मनुहार।
बात भी हो सके,मुमकिन न हो,
कैसे हम बेतार॥
महलों के सुख,
मन निराश हो,
तन खाली,आँखें भीगी,
मन हुआ शक्ति से पार॥
छुप कर मिलना,
चार मिलन बस,
जीवन पूरा खाली।
कैसे संभव होगा आगे,
जब हों,कदम-२ पर ख़ार॥
Saturday, January 16, 2010
महाकुम्भ रिश्तों का
मैं संकुचा सा बढ़ा, निर्मला,
Sunday, January 3, 2010
बिटिया
एक ऐसी कविता,
जो उसे कह दे वैसा,
जैसा वो मुझे
महसूस होती है॥
सलोनी को कैसे कहूँ,
की वो है रौनक!
हमारे आँगन की,
चिड़िया है वो,
जो चहक-२ करती है,
बातें, और फुदक-२
बताती है अपनी सौगातें॥
वो जो मेज पर रखे गुलदान को,
भी रखना चाहती है,
उतना ही सजीव,
जितनी जीवन्तता तैरती है,
उसकी अपनी आँखों मे॥
उसने देखा है एक स्वप्न,
उम्दा से उम्दा करने का,
और अब इस चाहत मे ,
वो छोड़ आई है,
माँ का आँचल॥
कर रही है तैयारी ,
एक मुहिम की,
ताकि वो पाले,
एक मुक़ाम॥
वो तकती है
हथेली पर तनी,
आढ़ी व खड़ी लकीरें,
और चाहती है,
जानना उनका अनूठा विज्ञानं॥
वो पढ़ लेना चाहती है,
अपने आना वाला कल,
आज ही से, क्यूंकि,
उसका जिज्ञासु मन ही,
तो उसे बनाता है सबल,
सफल, चंचल
और सुन्दर जैसे
मोगरा के फूल से
लिपटी हुई तितली॥
बिटिया चाहती है एक कविता........