जो भी हो दोस्तों ! मैं तो मुखातिब हूँ अब आपसे एक ऐसे उन्मान के साथ जो बह जाना ही चाहता है॥ आपको शायद यह भी लगे कि लिखी जा रही कविता मैंने किसी विशेष के लिए लिखी है, और अगर मैंने लिखी है किसी की व्यक्तिवादिता तो उसे निजी क्यूँ नही रखा, लेकिन मुझे लगता है कुछ लोग होते हैं हमारे समाज मे जो ख़ुद ही व्यक्तिवादी न हो कर सामजिक चेतना के दीप बन जाते हैं, ऐसे ही एक दिये ( कंचन दी) की कहानी को कविता के माध्यम से सुना रहा हूँ, रचना देखने में लम्बी लग सकती है, पर वादा करिए आप इसे पूरा पढेंगे, मुझे पूरा यकीन है आप को पूरा पढ़ने के बाद इस बात का मलाल नही रहेगा कि इतनी लम्बी रचना को न पढ़ना बेहतर था !!
शुरू करते हैं ....
रेशम की एक डोर से संसार बांधा है ,
वो अक्सर क्या ?
हर कभी कहती हैं !
वो सहज मानवी है,
देवी नही है॥
में मान लेता कभी ,
पर मानने नही देता,
मन।
देता है उलाहना,उल्टे!
मुझे डांटता बहुत है,
ऐसा करने पर॥
डांटती तो वो भी है,
ऐसा न करने पर,
में हो जाता हूँ तटस्थ,
और खोजता हूँ,
नई शब्दावली,
नई परिभाषा,
रिश्तों की !!
संसार मे रह कर
संसार मे रहने वाले,
पर संसार से विचित्र,
व्यवहार दर्ज करने वाले,
शख्स को ,यदि
एक शब्द मे कहना हो
तो क्या कहें.....!!
क्यूंकि यह तो तय है,
कि नही है वो,
सहज मानवी,
मगर मानने से
इंकार कर दिया है उसने,
ख़ुद को देवी ॥
वो भेजती है,
मुझे नेह का सूत्र,
लिफाफे में, मैं निहारता
रहा हूँ ,
उस बंधन मे छुपी,
अतिशय सुन्दरता॥
कहने को बहिन कह दूँ
इस धागे की ताक ले कर,
पर उस करुणा का
क्या नाम हुआ,फिर
जो उसके मन से बहती है
मेरे लिए,
और सहानुभूति रखने वाले
सहचर सी कर लेती है
नम आँखे रह-२ कर॥
संत, साध्वी ,सेवी,
क्या-2 shaब्द है दुनिया के,
बन चुके शब्द कोष मे,
मैं बिठाता हूँ इस
शख्स कि योग्यता
mका मेल हर
खांचे मे,
पर पाता हूँ
परिभाषाओं से भिन्न
कुछ ऐसा
जो समाता नही है इन
परिभाषित शब्दों मे,
मैं हतप्रभ सा,
सोचता रहता हूँ,
क्यूँ शब्दातीत को,
कभी-२ शब्दों मे
बाँधने का होता है मन,
जैसे अतुल नेह
जिसका कोई,
सीमांकन नही है,
बहिन बाँध देती है
रेशम की डोर मे पिरो कर,
अपने प्यारे भइया की,
सुंदर कलाई पर !!॥