Sunday, June 27, 2010

कविताएँ..

अपनी diary के पन्नों को पलट रहा हूँ, सोचा ये दो कविताएँ आपसे भी बाँटू ....

१) तितलियाँ.....

दरवाजा खुलने की आहट हो,

कि लगता है, तुम आई हो॥

तुम तो जानती हो कि,

मैं भूल जाता हूँ॥

भूल जाता हूँ कि,

तितलियों के आने में,

न आहट जुरुरी है,

न दरवाजा खुलना॥

बस जुरुरी है तो इतना,

कि अन्दर कोई महक,

उनका स्वागत कर रही हो॥

वो आ जाती हैं,दरख्तों से,

झोंको से,वातायनों से,

और नहीं तो वो पैदा हो जाती है,

उस ख़ुश्बू मे खुद -ब-खुद,

अभी-अभी,जैसा हुआ॥

२) मैं!

मैं एक ऐसी क़िताब हूँ,

जिसकी आवरण पृष्ट के अलावा,

सारी पृविष्टियाँ सबल हैं॥

और वो एक ऐसी क़िताब हैं,,

जिनकी आवरण पृष्ट के अलावा,

सारी पृविष्टियाँ,शून्य॥

मगर वो सफल हैं,

क्यूंकि इस दौर में,

भीतर झाँकना कौन चाहता है॥

दो क्षणिकाएं...

१)तुम रोया मत करो

आंसुओं को,

शर्मिंदगी महसूस होती है,

झूठा रोना रोने में॥

२) गलियाँ मौन इसलिए नहीं,

कि बहुत देर से कोई गुज़रा नहीं॥

बल्कि यूँ, कि वो गुजरने वालों से,

अब बात नहीं करती॥

Sunday, June 20, 2010

मौन क्यूँ हो, बोल दो

तुम्हारे लिए!

मौन क्यूँ हो?
बोल दो !
पट खोल दो।
अधरों से कह दो,
कुछ कहें॥
नैनों को कह दो,
झांक लें,
पलकों से बाहर।
कह दो उन्हें,
हमें देख लें॥
केश लहराओ ज़रा,
फैला दो उन्हें,
कि आकर वो हम तक,
चेहरा हमारा चूम लें॥
मैं हूँ, व्याकुल,
चिंतित और आकुल,
अपने ह्रदय से कहो,
आकर हमे वो चैन दे॥
दे दो सहारा,
छू कर मुझे तुम,
हम खो कर स्वयं को,
तुम से तुम्ही को,
छीन लें॥

मौन क्यूँ हो?
बोल दो !
पट खोल दो।
अधरों से कह दो,
कुछ कहें॥

न करें अठखेलियाँ,
अब जान जाती है,
हलक से,
पास आकर बैठ लें,
थोडा हमे वो प्यार दे,,,,